DWESH PREMI PART 1

DWESH PREMI PART 1
मेरा नाम अभिक सेन है। आप शायद मेरी बात पर भरोसा न करें, लेकिन सच यही है कि जब मैंने आख़िरी बार आँखें खोलीं तो मुझे लगा जैसे मैं किसी अनजान दुनिया में हूँ। शरीर मेरा था, पर जैसे मेरा रहा न हो। दाएँ पैर में जलन-सी चुभ रही थी, माथे पर किसी का ठंडा हाथ रखा था, और चारों ओर घुप्प अँधेरा फैला था। साँसें उखड़ी हुई थीं, दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। मैंने होंठ हिलाने की कोशिश की, पर आवाज़ नहीं निकली। और तभी अचानक तेज़ रोशनी मेरे चेहरे पर आ पड़ी। आँखें चौंधिया गईं, लगा जैसे किसी ने हज़ार मशालें मेरे सामने जला दी हों। डर से दिल और भी तेज़ धड़कने लगा। “डर मत।” वह आवाज़ कहीं पास से आई थी। आवाज़ अजीब थी न पूरी तरह अनजान, न पूरी तरह जानी-पहचानी। उसमें ठंडक थी, जैसे किसी गहरी नदी का पानी। मैं हकलाकर बोला, “तुम… तुम कौन हो? और मैं यहाँ कैसे पहुँचा?” आवाज़ ने जवाब दिया, “अपहरण जैसा मत सोच। यह जगह अपहरण की नहीं, मुक्ति की है। यहाँ कोई झगड़ा नहीं, कोई ईर्ष्या नहीं। लेकिन पहले… तू अपनी कहानी बता।” मेरी आँखें अब धीरे-धीरे रोशनी की आदी हो रही थीं। सामने कोई बैठा था, चेहरा अभी भी धुँधला था, पर उसकी हथेली अब भी मेरे माथे पर रखी हुई थी। उस स्पर्श में एक अजीब-सी शांति थी, और उसी शांति ने मुझे बोलने की ताक़त दी।मैंने गहरी साँस ली और अपनी कहानी कहना शुरू किया। मेरे दादा, ज्योतिप्रिय सेन, बारह साल पहले अचानक दिल के दौरे से गुजर गए। आधी रात थी, किसी को कुछ समझने तक का मौका नहीं मिला। उस रात की चीखें, उस अचानक टूटे परिवार की तस्वीरें, आज भी मेरी आँखों में ताज़ा हैं। मैं दादा के कमरे में आख़िरी व्यक्ति था, जिसने उन्हें जाते हुए देखा। दादा जी क्या गए घर का माहौल ही खराब हो गया पापा और चाचा किसी न किसी बात पे लड़ने लग जाते थे दादा जी वसीयत लिए बिना ही इस दुनिया से रुखसत हो गए थे की दुकान पे कौन बैठेगा और घर का कौन सा हिस्सा किसके पास आएगा और यहीं से पिता और चाचा के बीच अनकही लड़ाई शुरू हो गई। हमारी दुकान कालीघाट बाज़ार में है मिट्टी के बर्तन बिकते हैं वहाँ। दादा के जाने के बाद पिता, बिमल सेन, और चाचा, तपन सेन, दोनों ने मिलकर दुकान सँभालने की कोशिश की। लेकिन हर दिन यह कोशिश नाकाम साबित होती। कभी दुकान के हिसाब-किताब को लेकर झगड़ा होता, कभी घर की अलमारी और उसके अंदर रखे गहनों को लेकर। एक दिन तो मैंने अपनी आँखों से देखा कांच की अलमारी के टुकड़े सब तरफ बिखरे पड़े थे और चाचा और पापा फिर से एक दुसरे को भला बुरा कहना चालू हो गए थे उन्हें ऐसे देख कर लगता ही नहीं था की वो सगे भाई है एक दिन चाचा जी आग बबूला होम बोले बिमल सब कुछ तुम्हारे अकेले का नहीं है हर चीज पर मेरा भी बराबर का हक़ है दूकान मेरी भी है ये सुनकर पापा ने भी ऊँची आवाज़ में कहा देखो अगर तुम नीचे का हिस्सा लोगे तो ऊपर वाला हमारा होगा । हर चीज़ पर तुम्हारा हक़ कैसे हो सकता है?” चाचा के चेहरे पर क्रोध का रंग और गहरा हो गया। उन्होंने पास रखी लकड़ी की छड़ी ज़मीन पर पटकी और कहा, “बड़े आए हक़दार! माँ ने जो दिया, वो मेरा है। तुमने तो सिर्फ़ छीनना सीखा है।” पिता ने ताना कसते हुए कहा, “अगर पिताजी आज ज़िंदा होते और तुम्हें देख लेते, तो शायद शर्म से अपनी गर्दन बाँध लेते।” उस वक़्त मैं कोने में खड़ा सब देख रहा था। टूटी हुई अलमारी के शीशे के टुकड़ों में मुझे पिता और चाचा का प्रतिबिंब दिखा। ऐसा लगा जैसे दादा वहीं खड़े हैं और कह रहे हों “कितने बदनसीब हैं तुम लोग, जो मेरी मेहनत को बाँटकर खून का रिश्ता खो रहे हो।” मुझे उस रात नींद नहीं आ रही थी कुछ समझ नहीं आ रहा था आखिर मैंने माँ से पूछा , “माँ आख़िर पापा और चाचा झगड़ा ख़तम क्यों नहीं कर सकते हैं? क्यों नहीं बाँट लेते?” माँ ने गहरी साँस ली और बोलीं, “ये हर घर की कहानी है बेटा न तो झगडे ख़त्म होते हैं न ही रिश्ते, हर कोई अपने हक़ के लिए लड़ता है और तुम्हारे पापा जो कुछ भी कर रहे हैं हमारे लिए कर रहे हैं । और तुम्हारे चाचा? उनका बेटा अभी छोटा है, लेकिन कल को वो भी यही करेगा।” मैं माँ की आँखों में देख रहा था। वहाँ आँसू भी थे और थकान भी। मैंने धीरे से कहा, “माँ, मैं तो किसी से झगड़ा नहीं करूँगा। पापा और चाचा दोनों मेरे अपने हैं। क्या एक घर में सब साथ नहीं रह सकते?” माँ हँसी भीं, पर वो हँसी ऐसी थी जिसमें दर्द छिपा था। “तू अभी बच्चा है। बहुत पढ़ता है न, इसलिए किताबों वाली बातें करता है। ज़िंदगी में जो खोया है, उसे किताबें नहीं लौटातीं।” मेरे घर में हर दिन जैसे युद्ध छिड़ा रहता था। कभी बिजली के बिल पर, कभी पुराने फर्नीचर पर, कभी दुकान के मुनाफ़े पर।एक दिन तो यह हाल हो गया कि ट्यूब लाइट जली रहेगी या नहीं, इस पर पिता और चाचा झगड़ पड़े। पिता बोले, “इस महीने मैंने बिल दिया है, तो घर में टेबल लैंप चलाओ, ट्यूब लाइट नहीं।” मैंने कहा, “पर पापा, रात को पढ़ाई कैसे करूँ? टेबल लैंप में रोशनी कम है।” उन्होंने गुस्से से जवाब दिया, “तुम्हें मेरे ज़िंदा रहने में तकलीफ़ है? जब मैं मर जाऊँगा तब खुशी होगी न?” उनका यह ताना मेरे दिल में तीर की तरह लगा। मैं सोचता रह गया क्या सचमुच ये वही पिता हैं, जो मुझे बचपन में गोद में खिलाते थे? यह सब सुनाते-सुनाते मेरी आँखें भर आईं। सामने बैठा वह अजनबी अब भी चुपचाप सुन रहा था। उसकी हथेली अभी भी मेरे माथे पर थी। उसकी चुप्पी में जैसे एक गहरी समझ थी।उसने बस इतना कहा, “और फिर?” मैंने गहरी साँस ली और अपनी कहानी आगे बढ़ाई।