DWESH PREMI PART 2

DWESH PREMI PART 2
उस अजनबी ने जब मुझसे कहा “और फिर?” तो जैसे मेरे भीतर दबे हुए बरसों के शब्द उमड़ पड़े।मैंने आँखें मूँदीं और यादों का दरवाज़ा फिर से खुल गया।कॉलेज के दिनों की एक घटना मुझे आज भी साफ़ याद है। मैं कैंटीन में दोस्तों के साथ बैठा था कि अचानक फ़ोन की घंटी बजी। स्क्रीन पर “माँ” लिखा था। मैंने उठाया, और दूसरी तरफ़ माँ की घबराई हुई आवाज़ थी“अभिक! जल्दी घर आ। पुलिस आई है घर पे तेरे चाचा लेके आये हैं दुकान बंद करवाने आए हैं।” माँ की बात सुनते ही मेरे हाथ से प्लेट गिर पड़ी। मेरे दोस्त जो उस वक़्त मेरे साथ ही थे बोले की क्या हुआ पर मैं जवाब देने की हालत में नहीं था मैंने जल्दी से बाइक ली और घर के लिए निकल पड़ा दिल में डर था कि अब घर पहुँचकर क्या देखूँगा।जब पहुँचा, तो वही नज़ारा दुकान के सामने भीड़ जमा थी। लोग तमाशा देख रहे थे। किसी को मज़ाक लग रहा था, किसी को मनोरंजन। पिता और चाचा आमने-सामने थे, चेहरों पर खून उतर आया था। पुलिस बीच में खड़ी थी और कह रही थी “देखिए, जब तक आपके पिता ने कोई वसीयत नहीं छोड़ी, दुकान आप दोनों की है। बराबरी का हक़ है। अगर न मानें, तो कोर्ट जाइए।” लोगो के लिए ये एक तमाशा था हंस रहे थे सब हमारे घर की तरफ देख के जैसे यहां कोई सरकस चल रहा हो। दिल एक साथ गुस्से और शर्म से भर गया माँ भागकर मेरे पास आईं। उनकी आँखें लाल थीं। “देखो अभिक, ये लोग मानते ही नहीं। कहते हैं दुकान बंद कर देंगे। तुम्हारे पिता को धक्का भी दिया।” मैंने अजीब सी नज़रों से चाचा को देखा। पर इनका चिल्लाना बंद नहीं हो रहा था वो बोले जा थे की तुम चाहे कुछ भी कहो कानून मेरे साथ और वो भी यही कहता है सब बराबरी का होगा वार्ना दुकान पे ताला लगना तय है ये सुनकर पापा भी ज़ोर से बोले “और तुम चोरी-चोरी कैश में बैठकर जेब भरते हो, उसका क्या? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई हमें बाहर करने की?” मैं वहीं खड़ा सोच रहा था क्या यही घर है? यही वो जगह है जहाँ दादा ने हमें एक परिवार में रहने का तरीका सिखाया था हर दिन एक एक करके इस परिवार इस संपत्ति को बड़े प्यार से जोड़ा था? दिन बीतते गए, पर झगड़े ख़त्म नहीं हुए। कभी माँ और चाची में तकरार होती, कभी पिताजी और चाचा में।घर में तो यह हाल था कि बिजली का बिल तक बँटकर आता। जिस महीने पिता बिल भरते, वो तय करते कि कौन-सी लाइट जलेगी और कौन-सी नहीं। जिस महीने चाचा भरते, नियम बदल जाता। एक बार रात को मैं पढ़ रहा था। टेबल लैंप जल रहा था। पिता ने देखा तो झल्लाकर बोले, “टेबल लैंप क्यों जला रखा है? ट्यूब लाइट जलाओ, वो ज्यादा किफ़ायती है।” मैंने कहा, “लेकिन पापा, ट्यूब लाइट की तेज़ रोशनी से सिर दुखता है। लैंप आरामदायक है।” पिता भड़क उठे, “उफ़! तुम्हें मेरे जीते-जी तकलीफ़ है? मेरी मौत का इंतज़ार कर रहे हो क्या?” पापा के मुँह से ये शब्द सुनकर मुझे बड़ा धक्का लगा। जो पापा मुझे आशीर्वाद देते नहीं थकते थे आज वो ही मुझे क्या क्या कहने लगे थे। अब मेरा और पापा का रिश्ता सिर्फ गुस्से का रह गया था। लेकिन इन सबके बीच एक उम्मीद मुझे ज़िंदा रखती थी मेरी नौकरी। मुझे लगता था, जिस दिन नौकरी मिलेगी, उस दिन सब झगड़े ख़त्म हो जाएँगे। आखिर वो दिन आ गया जिसका मुझे कब से इंतज़ार था मेरी नौकरी लग गई। मैं बहुत खुश हुआ और ख़ुशी ख़ुशी मिठाई लेकर घर गया ये सोचते हुए की आज सब ठीक हो जाएगा पापा खुश होंगे चाचा भी मुझे गले लगा लेंगे और माँ माँ आँखों में आंसू लिए कहेगी की अब सब ठीक है ।पर हुआ उल्टा। मैंने दरवाज़ा खटखटाया। काकी ने दरवाज़ा खोला। चाचा पीछे से आए और शक भरी नज़रों से मुझे देखा। “अरे! ये मिठाई क्यों? कहीं कोई और चाल तो नहीं?” मैंने काँपती आवाज़ में कहा, “नौकरी मिली है, चाचा… आप सबको खुशख़बरी देने आया हूँ।”पिता ऊपर से चिल्लाए, “अभिक, ऊपर आओ। नीचे मत रुको।” चाचा ने दरवाज़ा आधा बंद कर लिया और बुदबुदाए, “देख लेंगे। ज्यादा देर रुका तो नुकसान उठाना पड़ेगा।”उस रात मैं खिड़की से झाँक रहा था। बाहर कुत्ते भौंक रहे थे। और वहीं मैंने देखा मिठाई का डिब्बा मोहल्ले के कुत्तों को डाल दिया गया था।मेरी आँखों में आँसू थे। अंदर जैसे कुछ टूट गया। सोच रहा था क्या मैं सचमुच अपने ही घर में अजनबी हूँ? धीरे-धीरे मैं नौकरी में रमने लगा। लेकिन मन कभी घर से जुड़ नहीं पाया। दफ़्तर में दोस्त पूछते “तुम घर से रोज़ आ-जा सकते हो, ये तो बड़ी अच्छी बात है।” मैं बस हल्की हँसी हँस देता। कैसे बताता कि वही घर मुझे सबसे ज़्यादा तकलीफ़ देता है? यहीं तक सुनाकर मैंने थोड़ी देर चुप्पी साध ली। सामने बैठा अजनबी अब भी मेरी आँखों में देख रहा था। उसके चेहरे पर धैर्य था, जैसे कह रहा हो “बोलते रहो, मैं सब सुन रहा हूँ।” न जाने क्यों मुझे बहुत हल्का महसूस हो रहा था जैसे कोई बोझ उतर गया हो। ये सब बताते बताते मेरे होंठ सुख गए थे मैंने उनसे पानी माँगा उन्होंने बिना देर किये मुझे पानी का गिलास पकड़ा दिया और कहा – “और फिर क्या हुआ, अभिक?” मैंने पानी के घूँट के साथ गला साफ़ किया और कहानी आगे बढ़ाई।