DWESH PREMI LAST PART

मैंने गिलास से पानी पिया और गहरी साँस खींचकर अपने गले को साफ़ किया। सामने बैठा अजनबी अब भी मेरी ओर उसी शांत भाव से देख रहा था। उसकी आँखों में एक अजीब-सी करुणा थी, जैसे उसे पहले से पता हो कि मेरी कहानी कहाँ जाकर खत्म होगी। मैंने धीमे स्वर में कहना शुरू किया
“वो रात… मेरी ज़िंदगी की आख़िरी रात थी।”
दफ़्तर से लौटते हुए आसमान से बारिश होके चुकी थी। हवा में अब भी मिट्टी की भीगी हुई गंध घुली थी। सड़क पर गड्ढों में पानी जमा था, कहीं-कहीं बिजली की रोशनी उसके ऊपर चमककर छोटे-छोटे दर्पण-से बना रही थी। कंपनी की कार मुझे मोहल्ले के मोड़ तक छोड़कर चली गई। उसके जाते ही सड़क पर एक अजीब-सी वीरानी छा गई।
मैंने अपने बैग की पट्टी कंधे पर ठीक की और घर की ओर चल पड़ा। गली में कीचड़ फैला था। चप्पल बार-बार मिट्टी में धँस जाती और जब खींचकर निकालता तो छपाक की आवाज़ के साथ कीचड़ उछलकर कपड़ों पर गिर पड़ता। मैंने झुंझलाकर पैर झाड़े और सोचा “कैसा घर है ये भी! कोई सफाई नहीं, कोई रोशनी नहीं। जैसे बरसों से उजाला यहाँ आता ही नहीं।”
मैंने ऊपर आसमान की ओर देखा। बादलों की मोटी चादर के पीछे चाँद छुपा हुआ था। बस हल्की सी उजली परत थी जो पूरे मोहल्ले पर पसरी हुई अँधेरे से लड़ने की कोशिश कर रही थी।
धीरे-धीरे मैं अपने घर के दरवाज़े तक पहुँचा। और तभी मेरी नज़र उस पर पड़ी मुख्य दरवाज़े के ऊपर लगी बल्ब की बत्ती बुझी हुई थी।मैं ठिठककर खड़ा हो गया। कुछ देर यूँ ही अंधेरे में आँखें गड़ाकर देखता रहा, फिर याद आया “हाँ, इस महीने बिजली का बिल पापा ने भरा था। और उनका पुराना नियम है कि जब तक उनका महीना चलता है, गैर-ज़रूरी बत्तियाँ नहीं जलेंगी। ये उनकी बचत का तरीका है… उनका गर्व भी।”
मेरे भीतर अचानक गुस्सा और थकान दोनों उमड़ आए। बरसों से ये नियम मैं सहता आया था। बचपन में जब होमवर्क करता तो रोशनी बुझा दी जाती, कॉलेज के दिनों में जब पढ़ाई करता तो ताने मिलते “कितनी बिजली जलाता है लड़का!” और अब… नौकरी लगने के बाद भी वही हाल।
मैं दरवाज़े के पास पहुँचा। अंधेरे में हाथ फैलाकर कुंडी टटोल रहा था। हवा में नमी थी, पैरों के नीचे कीचड़। मन ही मन बुदबुदाया “काश, एक बार तो ये घर रोशनी से जगमगा जाए। एक बार तो बिना झगड़े, बिना हिसाब-किताब के, सब एक साथ बैठें।”
लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था।अजनबी ने मेरी बात पूरी होने से पहले ही कहा “अभिक, तुझे सच बताता हूँ। तुझे साँप ने डसा था। पोस्टमार्टम में भी यही लिखा गया। लेकिन हक़ीक़त यह है कि तू साँप के ज़हर से नहीं, बल्कि अपने ही घर के द्वेष से मरा।”
मेरी साँस अटक गई। मैंने काँपते हुए पूछा “मतलब?”
वो धीरेधीरे बोला
“तेरे पिता छाती पीटकर रो रहे हैं। बारबार कह रहे हैं कि ‘पैसे बचाने की हठ में मैंने बेटे की जान ले ली।’ तेरी माँ बेहोश सी होकर तेरी मामी के गले लग रो रही है। तेरे चाचा की आँखों में भी आँसू हैं। उन्हें अब समझ आया है कि ईर्ष्या असल में इंसान की अपनी दुश्मन है। सोच, आज जो तेरे साथ हुआ, वही किसी और के साथ भी हो सकता था। वो आग जिसने तेरे घर को बरसों से जलाया, वही आख़िरकार तुझे निगल गई।”
मेरे पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई। सच में, यही तो था… मैं बरसों से घर के हर झगड़े में यही सोचता था कि यह लड़ाई किसी दिन किसी की जान ले लेगी। पर कभी सोचा नहीं था कि वह जान मेरी होगी।
इतना कहते ही बाहर से किसी बुज़ुर्ग की आवाज़ आई “क्या मेरे पोते से मिलने नहीं दोगे? बहुत दिन हो गए उसका चेहरा देखे हुए।”
मैंने चौंककर उधर देखा। और मेरा दिल थम सा गया।वो दादा थे। ज्योतिप्रिय सेन। वही मुस्कान, वही झुर्रियों में छिपा अपनापन। बरसों पहले जिन्हें लकड़ी की चिता पर विदा किया था, वो आज मेरे सामने खड़े थे।
मैं फूट फूट कर रो पड़ा। आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।दादा ने मेरी पीठ पर हाथ रखा और कहा “डर मत अभिक। अब तू अकेला नहीं है। यहाँ कोई झगड़ा नहीं, कोई नफ़रत नहीं। यहाँ सब साथ रहते हैं। यहाँ अधिकारों की लड़ाई नहीं होती, यहाँ बस अपनापन है।”
मैंने काँपते हुए कहा,“दादा… ये सब क्यों हुआ? क्यों हमारे घर में इतनी नफ़रत थी? क्यों मैंने हमेशा लड़ाई ही देखी?”
दादा ने मेरी आँखों में देखकर कहा,
“क्योंकि इंसान जब तक जिंदा है, वो अपनी चीज़ों को पकड़कर रखना चाहता है। और इसी पकड़ में ही उसका सबसे बड़ा दुख छिपा होता है। लेकिन यहाँ… यहाँ छोड़ने से ही मुक्ति मिलती है।”
उनकी बातें सुनते सुनते मेरे भीतर का डर गायब हो गया। मुझे लगा जैसे बरसों का बोझ हल्का हो गया हो। वो सारे झगड़े, वो सारा द्वेष, वो कड़वाहट सब धीरे धीरे पिघलकर कहीं दूर बह गया।मैंने दादा की बाँहों में खुद को छोड़ दिया।
अब मैं समझ चुका था
मेरे घर के लोग बरसों तक संपत्ति बाँटते बाँटते खुद को खो बैठे। और मैं… मैं वही बेटा था जो चाहता था कि सब साथ रहें। मगर उसी चाहत ने मुझे इस मुकाम तक पहुँचा दिया।
लेकिन अब… अब मैं सुकून में था।दादा ने मुस्कुराते हुए कहा “चलो अभिक, बहुत दुख झेल लिया। अब मेरे साथ चलो। यहाँ कोई आँसू नहीं, कोई द्वेष नहीं। सिर्फ़ शांति।”
मैंने आख़िरी बार पलटकर देखा – वहाँ अब भी वही रोशनी थी, वही चेहरा धुँधला। लेकिन डर नहीं था। मन में सिर्फ़ शांति थी।
और मैं दादा का हाथ पकड़कर उस ओर बढ़ गया जहाँ कोई झगड़ा नहीं था।
समापन
यह थी अभिक की कहानी। एक ऐसा युवक, जिसने बचपन से लेकर आख़िरी साँस तक अपने ही घर में झगड़े और द्वेष देखे।
एक ऐसा बेटा, जो चाहता था कि सब साथ रहें ,और शायद यही सच है साँप का ज़हर इंसान को मार सकता है, मगर असली मौत तो ईर्ष्या और द्वेष ही देते हैं।
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