ANT YA SHURUAAT

ANT YA SHURUAAT
नई दिल्ली के एक छोटे से मोहल्ले आचार्य निकेतन में रहने वाली प्रिया का जीवन एक पहेली बना हुआ था। प्रिया का जीवन उतार-चढ़ाव से भरा था। एक साधारण शक्ल-सूरत वाली मध्यम वर्गीय परिवार की अनाथ लड़की, जिसका कभी एक सुखी, समृद्ध परिवार हुआ करता था, पर एक सड़क दुर्घटना में सभी चल बसे और बच गई सिर्फ प्रिया। पास के दूर के बहुत सारे रिश्तेदार आए थे परिवार वालों के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए। हर कोई अपने-अपने तरीके से उसे दिलासा देने की कोशिश कर रहा था। चाची ने कहा, "प्रिया बेटा, हमारे साथ चलो। तुम अकेली यहाँ कैसे रहोगी? हम सब तुम्हारे अपने ही हैं।" प्रिया ने धीरे से मुस्कराते हुए जवाब दिया, "चाची, मैं समझती हूँ कि आप सभी मेरी चिंता कर रहे हैं। लेकिन अभी मुझे यही रहना है।" तभी मामा जी ने आगे बढ़कर कहा, "बेटा, तुम हमारे साथ चलो। वहाँ तुम्हें किसी चीज़ की कमी नहीं होगी। हम सब तुम्हारा ख्याल रखेंगे।" प्रिया ने एक गहरी सांस ली और बोली, "मामा जी, आपका बहुत धन्यवाद। पर मुझे कुछ समय चाहिए। यह घर मेरे माता-पिता और परिवार की यादों से भरा हुआ है। मैं जब तक यहां रहकर खुद को समझा नहीं लूंगी कि अब मैं अकेली हूँ, तब तक कहीं नहीं जा सकती।" इस पर मौसी ने कहा, "लेकिन प्रिया, यहाँ अकेले रहना तुम्हारे लिए मुश्किल होगा। कोई न कोई परेशानी आ सकती है।" प्रिया ने जवाब दिया, "मौसी, मुश्किलें तो जीवन का हिस्सा हैं। लेकिन मैंने पापा से सीखा है कि बाहर वालों के छोटे-छोटे अहसानों की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। और यहां घर की यादों के साथ रहकर मैं खुद को संभाल पाऊंगी। मुझे यकीन है कि मैं खुद को मजबूत बना पाऊंगी।" चाचा ने कहा, "लेकिन बेटा, हम तुम्हारे अपने ही तो हैं। हम तुम्हें कभी कोई तकलीफ नहीं होने देंगे।" प्रिया ने गंभीरता से कहा, "चाचा, मैं जानती हूँ कि आप सभी मेरे भले के लिए कह रहे हैं। लेकिन मम्मी, पापा, भैया और दीदी के अलावा बाकी सभी रिश्तेदार मेरे लिए बाहर वाले ही हैं। मैं अभी खुद को मजबूत बनाने की कोशिश कर रही हूँ और इस प्रक्रिया में मुझे यही घर, यही माहौल चाहिए। जब तक मेरी अंतरात्मा यह स्वीकार नहीं कर लेती कि मैं अनाथ हो गई हूँ और अब मुझे बाहर वालों से संबंध बनाना होगा, तब तक मैं कहीं नहीं जा सकती। रह-रह के मुझे ऐसा लगता रहेगा कि शायद मेरे पापा उस डाइनिंग टेबल के टूटे पाए को ठीक करने आ जाएं जो वो उस दिन करना चाहते थे जब हम उस सफर पे निकले थे पर मेरी जिद थी कि हम लेट हो जाएंगे... माँ ने बहुत समझाया था मुझे, उस पूजा की अलमारी को साफ करते हुए, "बेटा, अब तू बड़ी हो रही है। बच्चों जैसी जिद नहीं करते।" पर मैंने एक ना सुनी उनकी... और छोटे भाई को उठाकर बाहर जाकर गाड़ी में बैठ गई... ये देखो, उसका गेम स्टेशन यहीं पड़ा है... ये यादें मुझे हकबे तक का मौका नहीं दे रही और आप यहां से कहीं और चले जाने की बात कर रहे हैं... कैसे जा सकती हूँ मैं?" सभी रिश्तेदार एक-दूसरे की तरफ देख रहे थे। प्रिया की बातें सुनकर वे समझ गए थे कि वह अपने निर्णय में अडिग है। उन्होंने उसे समझाने की और कोशिश नहीं की। सबने मिलकर उसे ढेर सारी शुभकामनाएँ दीं और उसकी हर संभव मदद का वादा किया। प्रिया ने उन्हें धन्यवाद दिया और कहा, "आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद। आपकी शुभकामनाएँ मेरे साथ हैं, यही मेरे लिए बहुत है।" रिश्तेदार एक-एक करके विदा हो गए, और प्रिया ने एक नई शुरुआत की तैयारी में खुद को व्यस्त कर लिया। रोज़मर्रा की ज़िंदगी प्रिया की दिनचर्या बड़ी ही साधारण थी, लेकिन उसमें एक अनोखी बात थी। हर सुबह जब वह उठती, तो सबसे पहले धरती को प्रणाम करती, फिर दोनों हाथ जोड़कर अपना चेहरा ढक लेती और कल्पना करती अपने सपनों के राजकुमार का। उसका चेहरा खिल उठता और खुशी-खुशी दो कप चाय बनाती और टी-टेबल पर आमने-सामने दोनों कप रख देती। पहले एक कप पी लेती, फिर सामने वाली कुर्सी पर जाकर बैठती और दूसरी कप चाय पीती। खुद ही खुद से बातें करती और अपने दिन भर की प्लानिंग सुनाती। नाश्ता बनाती, खुद खाकर चल पड़ती और डाइनिंग टेबल पर एक प्लेट सजाकर रख जाती। कॉलेज से सीधे घर आती और डाइनिंग टेबल पर आकर दिन भर के सारे किस्से सुनाती, खाना खाती और फिर अपने कमरे में जाकर कोई गजल चला कर सो जाती। शाम को आंटी नियमित रूप से आवाज़ देती संध्या दीपक जलाने के लिए, तब हड़बड़ा कर उठती। दीपक जलाती और दो मग कॉफी लेकर झूला पर आ जाती। रात को खाने का भी वही हिसाब, दो थालियों में खाना लगाती। रात को सोने से पहले थोड़ा सा सज-संवर लेती और अपने बिस्तर पर दो अलग-अलग तकिये लगाकर बीच में एक तकिया लगाकर पार्टिशन कर लेती। आँखें मूंदकर कल्पना करती अपने उस राजकुमार की और फिर उस काल्पनिक रोमांस की दुनिया में मगन होकर सो जाती। सुबह जब उठती, तो एक अद्भुत ऊर्जा और स्फूर्ति का अनुभव होता। साधारण जीवन की झलक प्रिया का रोज़मर्रा का जीवन बहुत ही साधारण था। वह सुबह उठकर योग करती, फिर नाश्ता बनाती और कॉलेज जाने की तैयारी करती। कॉलेज में पढ़ाई के साथ-साथ उसे दोस्तों से मिलना और नई-नई चीजें सीखना अच्छा लगता था। वापस घर आकर वह कुछ वक्त अपने पड़ोस के बच्चों को पढ़ाने में बिताती। यह उसके लिए एक नया अनुभव था, और बच्चों के साथ समय बिताकर उसे बहुत खुशी मिलती थी। सप्ताहांत पर वह अपनी आंटी के साथ बाजार जाती, घरेलू सामान खरीदती और कभी-कभी कुछ नई चीजें भी ट्राई करती। शाम को पार्क में टहलना, आस-पास के लोगों से मिलना और उनकी कहानियाँ सुनना उसे बहुत पसंद था। इन साधारण गतिविधियों में भी प्रिया को जीवन का सुख और संतोष मिल गया था। वह जान चुकी थी कि खुश रहना किसी बड़े सपने का मोहताज नहीं, बल्कि छोटी-छोटी चीजों में भी खुशियों की तलाश की जा सकती है।