PAARO PART 1

PAARO PART 1
आज भी हमारे देश में ऐसे कई गांव हैं जहाँ का जीवन कठिनाइयों से भरा है। न पानी, न बिजली, न सड़क, न पक्के मकान। यहाँ तक कि सरकारी प्राइमरी स्कूल भी कई किलोमीटर की दूरी पर है, जिसकी वजह से बच्चे पढ़ाई भी नहीं कर पाते। ऐसे ही एक गांव है मांझीपुर। इसी गांव का रहने वाला मोहन मांझी व उसकी पत्नी सुभागी देवी है, जिनकी एक 16 साल की बेटी पारो और दस साल का बेटा राजू है। इनका भी जीवन उन्हीं रास्तों पर है जहाँ पर सिर्फ गरीबी चल रही है, जो कभी थकती ही नहीं, बस चली जा रही है। इनका पूरा परिवार अनपढ़ गँवार है। पारो का पढ़ने का बहुत मन होता था, लेकिन उसकी मजबूरियाँ और गरीबी उसकी रुकावट थी। फिर भी वह चॉक से अपने घर की दीवारों पर कुछ न कुछ लिखती रहती थी, कुछ न कुछ बनाती रहती थी। वह रोज चॉक से कुछ लिखती और अपने दुपट्टे से मिटा देती और खुद ही मन ही मन कहीं खो जाती — “काश, मैं भी पढ़ पाती! मैं भी स्कूल जाती!” पंद्रह अगस्त के दिन रंगों से अपने घर की दीवारों पर उसने तिरंगा बनाया और उसके नीचे लिखा — “मेरा भारत महान।” वह टूटा-फूटा राष्ट्रगान भी गाने लगी। आसपास के बच्चे और उसका भाई राजू भी उसका साथ देने लगे। आज 15 अगस्त के दिन उसके पापा ने उसे ₹5 दिए थे। उन पैसों से पारो ने 20 टाफियाँ खरीदीं और सारे बच्चों में बाँट दीं और खुद भी खाईं। तभी उसकी नज़र एक आदमी पर पड़ी। उसके हाथ में कैमरा था, जो सारे बच्चों की फोटो खींच रहा था। फोटो खींचते-ख़ींचते वह पारो के पास आया और उसकी दीवार पर बने तिरंगे की भी फोटो ली। उसका नाम ज्ञानचंद था, जिसने पारो की दुनिया ही पलट दी। पारो ने उससे पूछा — “अंकल, आप कौन?” ज्ञानचंद ने जवाब दिया — “हम शहर से आए हैं, गांव देखने। तुम तो कलाकार हो! क्या नाम है तुम्हारा?” पारो ने बड़े ठाठ से कहा — “हमारा नाम पारो है, और यह हमारा भाई राजू है।” ज्ञानचंद हँस पड़ा — “और कौन-कौन रहता है आपके घर में?” तभी घर के दरवाज़े से मोहन मांझी बाहर आए। पारो बोली — “मैं, मेरे बाबूजी, अम्मा और मेरा भाई।” ज्ञानचंद ने आसपास का मुआयना करते हुए पूछा — “आपका ही घर है?” मोहन मांझी बच्चों के पास खड़े होकर बोले — “जी साहब, यह टूटा-फूटा घर हमारा ही है। आपके पहनावे से लगता है कि आप शहर से हैं। अब धूप में क्यों खड़े हैं, आइए अंदर बैठिए।” टूटी-फूटी खाट पर बैठा ज्ञानचंद चारों ओर देख रहा था। कहीं बर्तन बिखरे पड़े थे तो कहीं कुछ कपड़े। लालटेन का शीशा साफ़ करते हुए पारो की माँ ने ज्ञानचंद से अपनी परिस्थितियों का वर्णन करना शुरू किया — “साहब, आपको यही गांव मिला था देखने के लिए? यहाँ कुछ नहीं है झोपड़ी के सिवा।” बीवी की बात काटते हुए मोहन मांझी बोले — “साहब, इसकी तो आदत है, कोई भी नया आदमी देखती है तो अपना और पूरे गांव का दुखड़ा सुनाने लगती है।” इतना कहते-कहते मोहन मांझी के चेहरे पर दया का भाव आ गया — “ये ठीक से चल नहीं पाती साहब! तीन साल पहले बारिश और तूफान में हमारी झोपड़ी गिर गई थी, जिससे इसका एक पैर टूट गया था और मेरा भी सिर फट गया था। ये देखिए, यहाँ टाँके लगे थे। भगवान का शुक्र है कि उस दिन दोनों बच्चे अपने ननिहाल में थे।” यह कहते हुए मोहन मांझी भावुक हो गए। उनकी भावुकता देखकर सुभागी देवी बोलीं — “अब बताओ साहब, ये अभी मुझे ही चिल्ला रहे थे! अब बताइए, कौन सुना रहा है अपना कष्ट?” ज्ञानचंद मुस्कुरा रहा था और मन ही मन कुछ सोच रहा था। पारो एक लोटे में पानी भरकर ज्ञानचंद को देते हुए बोली —“लो साहब, कुएँ का पानी है, एकदम शुद्ध और ठंडा। पी लीजिए, नुकसान नहीं करेगा। हमारा पूरा गांव पीता है।” ज्ञानचंद ने लोटे को देखा — लोटा बहुत पुराना था। वह तुरंत मना करते हुए बोला — “नहीं-नहीं धन्यवाद! मैं अपना पानी अपने साथ लाया हूँ।” अपने बैग से एक मिनरल वॉटर की बोतल निकालकर दो घूँट पानी पीया और बोतल को वापस बैग में रख दिया। “क्या है ना, इस पानी की आदत नहीं है, तो कहीं तबीयत न खराब हो जाए, इसलिए अपना पानी साथ लेकर चलता हूँ।” ज्ञानचंद वहीं बैठा चारों ओर के भोलेपन को देखकर अंदर ही अंदर खुश हो रहा था — उसे जो चाहिए था, वह मिल गया था। वह उठा और मोहन मांझी को ₹100 का नोट देते हुए पारो को एक नजर देखकर मुस्कुराया और वहाँ से चला गया। मोहन मांझी ने वह ₹100 अपनी पत्नी को देते हुए कहा — “लो, रख दो, दवा में कम पड़ रहे थे ना। अच्छा आदमी था। भगवान उसे लंबी उम्र दे।” अगली सुबह फिर पारो अपनी मिट्टी से बनी दीवारों पर रंगोली बना रही थी। उसे एहसास हुआ कि उसके पीछे कोई खड़ा है। उसने मुड़कर देखा, तो ज्ञानचंद था। उसने अपने बैग से कुछ तस्वीरें निकालीं और पारो को दिखाने लगा। ये वही तस्वीरें थीं, जो उसने कल खींची थीं। अपनी तस्वीरें देखकर पारो का चेहरा खिल उठा। वो तुरंत राजू को बुलाई और तस्वीर लेकर सीधा अपने घर में अपने बाबूजी के पास गई। मोहन माझी की नजर अपने दरवाजे पर पड़ी, तो देखा कि ज्ञानचंद खड़ा मुस्कुरा रहा है। “क्या मैं अंदर आ सकता हूं?” मोहन माझी ने बहुत ही अदब से वहीं टूटी खाट पर बैठने को कहा — “धन्यवाद, साहब! आपने हमारे बच्चे के चेहरे पर खुशियां लाईं।” ज्ञानचंद, पारो को देखते हुए बोला — “क्या मैं आपके इस पूरे घर का वीडियो बना सकता हूं?” मोहन माझी ने बड़े हैरत में जवाब दिया — “साहब, ये टूटा-फूटा घर… आपके किस काम आएगा?” ज्ञानचंद ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया —“मैं ये वीडियो अपने काम के लिए नहीं बना रहा हूं, बल्कि आपके लिए बना रहा हूं। इस वीडियो को मैं सरकार तक पहुंचाऊंगा, जिससे आपको घर मिल सके, आपका जीवन बदल सके।” सारे परिवार को ज्ञानचंद में एक आशा भरी उम्मीद नज़र आने लगी। सुभागी देवी एक-दूसरे को देखते हुए बड़ी उम्मीद से बोलीं — “साहब, क्या ऐसा हो सकता है? हमें घर मिल सकता है?” ज्ञानचंद ने तसल्ली दी — “मैं कोशिश करूंगा चाची। ठीक है, मैं अभी निकलता हूं। मुझे कल इसी रास्ते से जाना है, तो मैं आप लोगों से कल भी मिलूंगा।” धीरे-धीरे ज्ञानचंद पूरे परिवार से घुल-मिल जाता है। अब वह रोज आने लगा। उसने बड़ी-बड़ी उम्मीद दिखाकर सबको अपनी तरफ आकर्षित कर लिया और विश्वास पात्र बना लिया। वह कुछ पैसे देकर उनकी मदद भी करता है। लेकिन उसके अंदर बेचैनियां भी थीं — कि वह जिस मकसद से आया है, उसकी बातें कब करे। और एक दिन उसके जुबान से निकल ही गया। बाक़ी कहानी अगले भाग में… ज्ञानचंद अब मांझीपुर का एक जाना-पहचाना चेहरा बन चुका था। रोज़ आता, बच्चों संग हँसी-मज़ाक करता, सुभागी देवी के हाथ की रोटी खाता, और मोहन मांझी के संघर्षों की कहानियाँ बड़े ध्यान से सुनता। लेकिन इन सबके बीच, उसके भीतर कुछ चल रहा था — कोई बात जो वह कहना चाहता था, लेकिन हर बार शब्दों तक आते-आते रुक जाता। पारो अब उसे “साहब” नहीं कहती थी, बल्कि “ज्ञान अंकल” कहने लगी थी। वो उससे सपने बाँटने लगी थी — स्कूल जाने का, पढ़-लिखकर कुछ बनने का, और एक दिन अपने जैसे बच्चों के लिए कुछ करने का। पर हर मुस्कुराहट के पीछे एक रहस्य था। हर दया के पीछे एक दिशा थी। और एक दिन, जब सूरज सिर पर था और गांव में खामोशी पसरी थी, ज्ञानचंद की ज़ुबान से वो बात फिसल ही गई… एक ऐसी बात, जिसने मांझीपुर की हवा बदल दी। बाक़ी कहानी अगले भाग में… पाठकों के लिए प्रश्न: 1. क्या ज्ञानचंद वास्तव में मांझीपुर की मदद करने आया था, या उसके पीछे कोई और मक़सद छुपा था? 2. जब पारो को ज्ञानचंद की असली मंशा का पता चला, तो उसने क्या फैसला लिया? 3. क्या मांझीपुर की सच्चाई दुनिया के सामने आएगी, या सब एक झूठ की परत में दफ्न हो जाएगा?