HUMARI ADHURI KAHAANI PART 6
कुछ पल की खामोशी रही। फिर उन्होंने ऐसी बात कही, जिसने वीर को अंदर से हिला दिया।
“मेरी बेटी का कन्यादान तुम करोगे।”
कमरे में जैसे वक्त ठहर गया। वीर को यकीन नहीं हुआ कि उसने सही सुना है। उसकी सांस अटक गई। ये शब्द उस पर किसी भारी पत्थर की तरह गिरे।
उसने धीरे से कहा, “सर…?”
जमुना प्रसाद ने अपनी बात दोहराई। “तुम करोगे। मैं चाहता हूं कि मेरी बेटी का कन्यादान तुम करो।”
वीर को लगा कि उसके पैर के नीचे की जमीन खिसक गई है। ये वही लड़की थी जिसे उसने पूरे दिल से चाहा था। जिसके साथ वह एक जिंदगी का सपना देखता था। लेकिन अब…? कन्यादान? यह शब्द उसके दिल में किसी धारदार हथियार की तरह चुभ रहा था।
उसके होंठ सूखने लगे। उसने खुद को संभालने की कोशिश की। “सर… मैं समझ नहीं पा रहा…”
जमुना प्रसाद ने उसकी आंखों में देखा। उनकी नजरों में एक अजीब सी गंभीरता थी। “मैं जानता हूं कि तुम अच्छे इंसान हो। मैं जानता हूं कि मेरी बेटी तुम पर भरोसा करती है। लेकिन मेरी जिंदगी की ये आखिरी इच्छा है। मैं चाहता हूं कि तुम उसकी ज़िंदगी में वो शख्स बनो, जो हर मुश्किल वक्त में उसके साथ खड़ा रहे।”
वीर की आंखों में नमी आ गई। वह कुछ कहने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसके शब्द गले में ही अटक गए। एक तरफ उसका प्यार था — अधूरा, बेजुबान। दूसरी तरफ ये जिम्मेदारी, जो उसके दिल पर बोझ की तरह बढ़ रही थी।
जमुना प्रसाद (कमज़ोर आवाज़ में):
“बेटा, संध्या का ख़्याल रखना। उसे कभी अकेला मत छोड़ना। उसकी शादी मैंने तय कर दी है। मेरी इच्छा है कि संध्या का कन्यादान तुम अपने हाथों से करो। मुझसे वादा करो।”
सुनकर वीर के पांव तले ज़मीन खिसक गई। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या जवाब दे। उसकी आँखों से धीरे-धीरे आँसू बहने लगे।
जमुना प्रसाद (ज़िद करते हुए):
“बेटा, मेरी आख़िरी इच्छा पूरी करोगे न? ज़रा मेरे हाथ पकड़ो।”
(जमुना प्रसाद ने वीर के हाथों को ज़ोर से पकड़ लिया।)
जमुना प्रसाद:
“तुम राजपूत हो। राजपूत कभी अपनी ज़ुबान से नहीं फिरता। मुझे तुम पर यक़ीन है। मेरा भरोसा मत तोड़ना।”
(वीर तड़पते हुए गहरी सांस लेता है। मजबूरी में वह जमुना प्रसाद जी को ज़ुबान दे देता है।)
वीर:
“आपकी इच्छा मैं ज़रूर पूरी करूंगा।”
पंडित जी का एक पैर टूटा हुआ था। वे खून से लथपथ थे। बोलने की स्थिति में नहीं थे, पर सब कुछ सुन रहे थे। वे सिसक-सिसक कर रो रहे थे।
उधर, जब तक संध्या अस्पताल के वार्ड में पहुँची, तब तक जमुना प्रसाद जी प्राण त्याग चुके थे।
वीर (बेबस होकर ):
“बाबूजी!!”
संध्या अपने पिता को देख कर बेहोश हो गई। पूरा वार्ड अफरा-तफरी में बदल गया। वीर बुरी तरह टूट चुका था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे।
कुछ देर बाद डॉक्टरों ने संध्या को होश में लाया।
संध्या (रोते हुए):
“पापा!”
वीर गुमसुम खड़ा था। उसकी आँखों में दर्द साफ़ झलक रहा था।
घर पर जमुना प्रसाद जी का अंतिम संस्कार हुआ। लोग सांत्वना देने आए हुए थे। लेकिन संध्या बस वीर को देखे जा रही थी।
अगली सुबह…
संध्या गार्डन में एक बेंच पर बैठी थी। उसकी नज़र एक छोटे गुलाब के फूल पर थी।
संध्या (मन ही मन सोचते हुए):
“क्या ज़िंदगी भी इस गुलाब की तरह होती है? कुछ दिनों की ख़ूबसूरती… और फिर किसी किताब के पन्नों में दबकर दम तोड़ देती है।”
बरामदे में खड़ा वीर संध्या की उदासी को महसूस कर रहा था। वह धीरे-धीरे उसके पास गया।
वीर (धीमी आवाज़ में):
“संध्या…”
संध्या का ध्यान टूटा। उसने अपने दुपट्टे से आँसू पोंछे और मुड़कर वीर को देखा। उसकी सूजी हुई आँखें और बेजान चेहरा देखकर वीर का दिल तड़प उठा।
संध्या तेज़ी से आगे बढ़ी और वीर को गले लगाकर फूट-फूट कर रोने लगी। वीर भी अपने आँसू रोक नहीं पाया।
गेट के सामने साइकिल को स्टैंड पर लगाकर जैसे ही राहुल गार्डन में प्रवेश करता है देखता है संध्या वीर के कंधे पर सर रखकर रो रही है। राहुल के कदमों की रफ्तार अपने आप धीमी हो जाती है वह धीमे कदमों से दोनो के करीब आता है
" यही तो जिंदगी है मेरे यारों"
राहुल की आवाज सुनकर दोनों अलग होते हैं। आंसुओं को पूछते हुए राहुल की तरफ देखते हैं।" राहुल समझाते हुए कहता है।पता है तकलीफ ज्यादा तब होती है जब इंसान बेवक्त चला जाता है। आपके पापा ने तो जिंदगी जी ली थी! और तुम भी नसीब वाली हो कि तुम्हें उनकी सेवा करने का मौका मिला। और साथ-साथ वीर को भी।मुझसे पूछो मैंने तो बचपन में ही अपने मां बाप को खो दिया था। अपनी मामी के ताने सुन सुन कर दो वक्त की रोटी खा लेता हूं। मुझे पता है जिंदगी इम्तिहान ले रही है एक न एक दिन अच्छे 6 अंक जरूर देगी और वही अंक हमारे जीवन में खुशियां लायेंगे। तुम्हारा दर्द में समझ सकता हूं संध्या। अंकल का चले जाना हम सबके लिए किसी सदमे से काम नहीं है। अगर तुम चाहती हो कि अंकल के आत्मा को शांति मिले तो तुम्हें खुद को हिम्मत देनी पड़ेगी। तुम्हें हंसना पड़ेगा ।तुम्हें खुश रहना पड़ेगा।
आज भले ही अंकल हमारे बीच नहीं है लेकिन वह सब कुछ देख रहे हैं। इसलिए अपने दुखों को समेटो और एक साइड रख दो। और जिंदगी में आगे बढ़ो। हम सब तुम्हारे साथ है। इतना कहकर राहुल वीर के कन्धे को थपथपाता है। " तू तो मेरा शेर है बे। अब तुम दोनों चलो मैं गरमा गरम koffee बनाता हूं। तीनों साथ पीते हैं।
जमुना प्रसाद जी को दुनिया छोड़े १३ दिन हो चुके थे। घर में हलचल है पंडित जी अपने पूजा का सामान इकट्ठा कर रहे हैं। संध्या, जमुना प्रसाद जी का कपड़े उनकी डायरी ढेर सारी किताबें एक बड़ी सी पेटी में पैक कर रही होती है। और खिड़की से वीर को देख रही होती है। वीर अपने दोस्त राहुल से कॉल पर बात कर रहा होता है।" राहुल तू कहां है कब से फोन कर रहा हूं"
"आ गया भाई ।मेन गेट खोल"
वीर में गेट खोलते हुए
कितनी देर लगा दी यार तुमने" मैंने नहीं फोटो फ्रेम वाले ने टाइम लगा दिया"
पेपर से ढके फ्रेम को खोलकर राहुल वीर को दिखाता है
"देख कितना मस्त प्रेम है"
राहुल से फोटो फ्रेम लेकर वीर सीधा संध्या के पास जाता हैं और उससे पूछता है।"यह तस्वीर कहां लगानी है"
संध्या तस्वीर को देखकर भावुक आवाज से कहती है" आंगन में लगा दो।"
"ठीक है" वीर जाने लगता है तभी संध्या फिर आवाज लगती है।"सुनो.. एक बार पंडित अंकल से पूछ लो सही दिशा बता देंगे"
वीर हां में सर हिला कर वहां से पंडित जी के पास जाता है।
तस्वीर देखकर पंडित जी खुश होते हुए "वही तो मैं कहूं मैं क्या भूल रहा हूं अच्छा हुआ तुम तस्वीर ले आए
अभी यही फूलों के पास रख दो अभी काम है तस्वीर का ! शाम को लगा देंगे। और हां सारा कार्य संपन्न होने के बाद हमसे मिलना कुछ जरूरी बात करनी है तुमसे"
वीर अदब से जवाब देता है "जी गुरुजी"
पंडित जी अपना कार्यक्रम समाप्त करने के बाद वीर के पास जाते हैं वीर इधर-उधर फैला हुआ सामान समेट रहा है।
" वीर"
"जी गुरु जी"
"आओ बेटा बैठो शाम हो रही है मुझे भी घर जल्दी निकलना होगा"
वीर जल्दी-जल्दी कुर्सी ले के आता है पंडित जी को बैठने की लिए कहता है और दूसरी कुर्सी पर वीर खुद बैठ जाता है!
"देखो वीर जमूना प्रसाद जी तो नहीं रहे हैं अब जो उनकी अधूरी जिम्मेदारियां बची हैं उसे हम दोनों को पूरा करना है"। वीर चुपचाप सर झुकाए पंडित जी के बातें सुन रहा है।
"बेटा उस बस हादसे के बाद मुझमें उतनी ताकत नहीं बची है कि मैं रोजाना यहां आउ और संध्या बेटी का ख्याल रखू। मैं भी बूढ़ा हो चुका हूं ना जाने कब भगवान का बुलावा मुझे भी आ जाए । और तुम भी अपनी बुढी मां को छोड़कर यहां कितने दिन आओगे ।इसलिए जल्द से जल्द संध्या बेटी को इस घर से विदा कर देना चाहिए । नये घर में नये लोगों से मिलेगी तो शायद इस हादसे को भूल जाए। उसे उसकी दुनिया में हमें भेज देना चाहिए"
दरवाजे पे खड़ी संध्या सारी बातें सुन लेती है।उसका पूरा शरीर लड़खड़ाने लगता है।पंडित अंकल ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं।
पंडित जी की बातें सुनकर वीर का भी हृदय अंदर ही अंदर कांप रहा था। अपनी तेज सांसों को कंट्रोल करते हुए सूखे मन से कहता है।
"जैसा आप कहे गुरुजी"
ठीक है बेटा हम लड़के वालों से बात करके एक सही तारीख निकलवा लेते हैं।
" जी गुरुजी "वीर सर हां में हिला देता है। अचानक उसकी नजर दरवाजे पर खड़ी संध्या पर पड़ती है।
संध्या वीर को देख रही होती है उसके होंठ काप रहे थे अपनी भीगी हुई आंखों से घर के अंदर चली जाती है।
" पंडित जी कुर्सी से खड़े होते हुए ।" चलो अब हम निकलते है सूर्य ढलने वाला है अपना ख्याल रखना"
इतना कह कर पंडित जी अपना झोला उठाकर चले जाते हैं वीर वहीं बैठा अपनी सांसों का कंट्रोल खो देता है।उसकी सांसे तेज हो जाती है वह चारों ओर बेचैनी से देखता है । फिर अपनी आंखें बंद करके खुद को नॉर्मल करता है। उसे उस वार्ड में खून से लतपथ जमुना प्रसाद जी की आंखों का आंसू।उनका वह हाथ पकड़ कर दी गई आखिरी इच्छा। उसे रस्सी से बाध रही थी। एक ऐसी गांठ जिसे वह चाह कर भी नहीं छुड़ा सका। उसे उसके पापा की कही बातें याद आ गई।
। बेटा हम राजपूत है। हमारा इतिहास रहा है ।हमारी दी हुई जुबान हमेशा अमर रही है ।जीवन में अगर किसी को जुबान देना तो उसका पालन करना यही क्षत्रिय धर्म है ।
वीर के कदमों में थकावट थी वह धीरे से उठा हल्के कदमों से मेन गेट तक जाके एक नजर संध्या के बेडरूम के खिड़की की तरफ देखा। खिड़की खुली थी लेकिन संध्या नहीं दिखी। वीर भरे मन से अपने घर को लौट आया।
संध्या अपने बेड पर लेटी हुई उसकी आंखों में बेबसी थी! उसके मन में कई सवाल थे। आखिरकार वीर ऐसा क्यों कर रहा है। उसके हाव भाव से पता चलता है कि वो मुझसे बहुत मोहब्बत करता है ।भले ही उसने कभी मुझे प्रपोज नहीं किया । लेकिन उसकी आंखें बताती हैं वह मुझसे ही प्यार करता है। फिर मुझे किसी और के घर क्यों भेज रहा है। मैं सहन नहीं कर सकती ।मैं किसी और कि नहीं हो सकती।
रात सुबह में तब्दील हुई खिड़की के पास खड़ी संध्या वीर का इंतजार कर रही थी कि आज मैं उससे पूछ कर रहूंगी वह ऐसा क्यों कर रहा है। संध्या ने वीर और पंडित जी को एक साथ आते हुए देखा।
संध्या दौड़ते हुए अपने तेज कदमों से आंगन में आई तब तक वीर और पंडित जी सोफे पर बैठकर आपस में बात कर रहे थे।
संध्या बेटी भी आ गई। देखो बेटा आपके पिता श्री नहीं रहे। लेकिन मैं अपनी दोस्त की सारी जिम्मेदारियां निभाऊंगा उनकी ख्वाहिश थी कि तुम्हारी शादी वही हो जहां वह चाहते थे। माफ करना बेटा शायद तुम सोच रही होंगी कि अभी-अभी पिताजी का स्वर्गवास हुआ है और मैं शादी की बात कर रहा हूं ।लेकिन समय की मांग यही है ।तुम अपनी नई दुनिया बसा लो। मेरा क्या है मैं आज हूं कल नहीं । वीर की भी एक अपनी दुनिया है। जिम्मेदारियां है इसकी एक बूढी मां है। हम दोनों ने मिलकर फैसला किया है कि तुम्हें विदा कर दिया जाए। जिसको जाना था वह चला गया। खुद को संभालो और नए जीवन की शुरुआत करो।
संध्या पंडित जी की बातें सुनते-सुनते वीर को बस देखे जा रही थी वीर सर झुकाए बैठा था। उसके अंदर भी बेचैनी थी।
कल लड़के की बहन का फोन आया था। वो चाहते हैं कि जल्द से जल्द शादी हो जाए। क्योंकि लड़की की बहन पूनम का सिलेक्शन इंस्पेक्टर के पद पर हुआ है अगले महीने मेरठ में जॉइनिंग है। भाई की शादी धूमधाम से करने के बाद ही वह मेरठ जाएगी। पूनम ने हमसे बहुत विनती की है। उनका कहना है कि इसी महीने 21 तारीख को विवाह हो जाए।
21 तारीख शुभ दिन भी है।
बेटा अगर तुम्हें कुछ कहना है तो तुम कह सकती हो। संध्या वीर की तरफ देखते हुए वापस अपने कमरे में चली जाती है।
वीर तुम संध्या से पूछ के मेहमानों की लिस्ट बना लो हम जाते-जाते टेंट वाले से कार्ड वाले से और रसोईया से मिल लेंगे।
वीर पंडित जी को दरवाजे तक छोड़कर फिर संध्या के पास जाता हैं।
संध्या अपने कमरे में आईने के सामने खड़ी खुद को निहार रही होती है और खुद पर ही तरस खाती है। शीशे में ही वीर की शक्ल दिखती है वीर उसके पीछे आकर खड़ा हो जाता हैं। संध्या के सूरत की मासूमियत शीशे में वीर को साफ़ दिख रही थी।
वीर खुद में एक हिम्मत जुटा के बड़े ही भरे शब्दों में कहता है।
"पंडित जी कह रहे हैं कि मेहमानों की लिस्ट आपसे ले ले।
इतना सुनते ही संध्या अपनी आंखें बंद करके एक लंबी सांस लेते हुए मुड़कर वीर के थोड़ा आती है।
" वीर...एक बात पूछूं? तुम मुझे पसंद करते हो या नहीं।
वीर अंदर ही अंदर खुद में हड़बड़ा जाता है। उसके समझ में नहीं आ रहा है कि वह जवाब क्या दें। वीर खुद को संभालते हुए जवाब देते हैं।"यह भी कोई पूछने वाली बात है।तुम मेरी दोस्त हो तुम्हारा स्वभाव अच्छा है। तुम समझदार हो। तुममें इंसानियत कूट-कूट कर भरी है ।ऐसे लोगों को कौन नहीं पसंद करता। तुम मेरी दुनिया की सबसे खास दोस्त हो। और हमेशा रहोगी।
संध्या तुरंत जवाब देती है।"लेकिन तुम्हारा स्वभाव। और तुम्हारी यह आंखें कुछ और ही कहती है ।की दोस्ती के साथ कुछ और भी है। मैं लड़की हूं एक लड़के की नजरों को पढ़ना मुझे अच्छी तरह आता है। और रही बात मेरी।मेरे रंग ढंग से। तुम्हारे प्रति तुम्हारा ख्याल रखना। मेरी आंखों में तुम्हारी खुशी। तुम्हारा इंतजार। तुम्हारा दीदार।तुम्हें कभी नजर नहीं आया।
यह सब बातें सुनकर वीर अंदर ही अंदर घुट रहा था।रह रहकर उसका मन कर रहा है कि संध्या को जोर से गले लगाके खूब रोए।लेकिन वह खुद को अपने मन को काबू करने की कोशिश कर रहा था। वीर कामयाब तो हुआ लेकिन संध्या की एक और बात ने उसके हृदय को पीघला दिया
वह रोना तो चाहता था लेकिन रो नहीं सका।
" मुझे पता है वीर तुम मुझसे बेइंतहा मोहब्बत करते हो। लेकिन ऐसी क्या मजबूरी है कि तुम खुद से मुझे अलग कर रहे हो।
वीर अपनी आंखें चुराते हुए बस इतना ही कहता है" मेहमानों लिस्ट कल दे देना "इतना बोलकर वीर एक झटके वहां से निकल जाता है दरवाजे तक आते-आते उसके आंखों में आंसुओ का आगमन हो चुका था। अपने बाजूओं से आंसु पोंछते हुए। वीर दरवाजे के बाहर चला जाता है।
तड़प बेबसी लाचारी मजबूरी से लिपटी हुई कई दिन कई रात गुजर गई। शादी का दिन नजदीक आ गया। आज मेहंदी की रस्म थी। संध्या के यूनिवर्सिटी की सारी सहेलियां वहां मौजूद थी। कुछ सहेलियां संध्या को मेहंदी लगा रही हैं तो कुछ समझा रही हैं और बीच-बीच में सुहागरात की बातें छेड कर उसे हंसाने की कोशिश कर रही है। संध्या तो किसी और दुनिया में खोई हुई थी। पास में पड़े अपने लहंगे के जोड़े को बिना पलके झपकाए देखे जा रही थी ।
तभी राहुल आता है और सभी से पूछता है।"किसी ने वीर को देखा क्या?
वीर का नाम सुनते ही संध्या की आंखें उस लहंगे से हटकर राहुल की तरफ मुड गई। संध्या के करीब बैठी उसकी सहेली निशा ने बड़े ही दया भाव से बोली।
हां मैंने उसको छत पर देखा बहुत उदास उदास था। मैंने पूछा तो कुछ जवाब नहीं दिया।
वीर छत पर छत की रेलिंग पकड़ कर खड़ा है। नीचे की जो चहल-पहल है शादी की तैयारी बस देखे जा रहा था। और सोचे जा रहा था कि आज और कल इस घर में रौनक है।मेला है। उसके बाद ये घर भी अकेला हो जाएगा। मेरी तरह।
यार भाई तूने अपना मोबाइल क्यों बंद करके रखा है।" मैं कब से कॉल कर रहा हूं" राहुल को देख। वीर विनती करता है। "राहुल प्लीज मुझे कुछ देर के लिए अकेला छोड़ दे भाई।
तभी वहां संध्या आ जाती है संध्या को देखकर वीर नज़रें फेर लेता है।" राहुल तुम्हें अकेला छोड या ना छोड़े। लेकिन तुम जिसे अकेला छोड़ रहे हो उसका क्या" संध्या कहते हुए वीर के सामने जाकर खड़ी हो जाती है।
"ऐसा क्यों कर रहे हो मेरे साथ। क्या मजबूरी है।क्या कमी है मुझ में" वीर कुछ भी जवाब नहीं देता चुपचाप खड़ा है।
संध्या की आंखें भर आई उसके होंठ कपकपा रहे थे। उसके शब्दों में दर्द था।
क्यों आए इतना करीब। क्यों अपनापन जताया ।क्यों रखा इतना ख्याल।
मैं तुम्हें अपने दिल में बसा कर किसी और कि नहीं हो सकती ।मैं तुम्हें नहीं भूल पाऊंगी ।
वीर अपने दिल पर पत्थर रखकर गुस्से में जवाब देता है।
"मैं नहीं करता प्यार तुमसे।
यह तुम्हारी गलती है कि तुम प्यार कर बैठी। यह मत भूलो कि कल तुम्हारी शादी है। हमारा सफर यहीं तक था। और इस सफर में तुम सिर्फ मेरी दोस्त थी। और ये प्यार वार मेरे लिए बेकार की बातें हैं "
संध्या। वीर की आंखों में आंखें डालकर बड़े ही विनती भरे भाव में कहती है।
झूठ बोल रहे हो तुम ।तुम्हारी आंखें कुछ और कह रही है। इसमें सिर्फ मैं दिखाई दे रही हूं।
वीर !संध्या से दूर हटते हुए झल्ला कर कहता है।" यह सब किताबी बातें हैं।समझो तुम ।मेरी आंखों की दुनिया अलग है।
संध्या फिर वीर के करीब जाकर उससे पूछती है।
फिर किस रिश्ते से तुम यहां खड़े हो ?और यह सब क्यों कर रहे हो। इतनी मेहरबानी क्यों? कौन हो तुम?
तीन साफ और सीधे सवाल :
1. क्या संध्या और वीर एक-दूसरे के लिए सच में तैयार हैं, या ये सिर्फ परिस्थितियों में जन्मा एक जुड़ाव है?
2. क्या जमुना प्रसाद की हरिद्वार यात्रा एक धार्मिक कर्तव्य थी या कहानी का एक निर्णायक मोड़?
3. अगर जमुना प्रसाद नहीं रहे, तो क्या वीर संध्या के पिता का सपना पूरा कर पाएगा?
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