TASVEEREIN

भव्य सुसज्जित कमरे में किसी ऊंचे पहाड पर बने हुए विशाल मन्दिर की-सी ही शांति थी। ठाकुर अजीतसिंह की बडी बहू वसुधा एक ओर स्टूल पर बैठी कैनवस पर चित्र बना रही थी। रह-रह कर उसके हाथों के कंगन और चूडियों की खनक उस शांत वातावरण में गूंज रही थी।
एक ओर रखा हुआ चांदी के पाओं वाला रेशमी बिस्तर से सज्जित पलंग, चंदन की चौकी पर रखा हुआ सितार, दीवारों पर जडे हुए चित्र और लटकते हुए फानूस सभी उसकी चूड़ियों की खनक के प्रत्युतर में बोलते-से प्रतीत हो रहे थे। गोरी सुन्दर वसुधा की यह एक मात्र दिनचर्या थी। सुबह उठते ही पूजा आदि से निवृत्त होकर वह इसी स्टूल पर आ बैठती और सांझ ढले तक कैनवस में रंग भरती रहती थी
आज से पच्चीस वर्ष पहले निस्संतान ठाकुर अमरसिंह के घर में भगवान ने बडी मान-मनौतियों के बाद कन्या-रत्न दिया था।महीनों ठाकुर के दरवाजे पर शहनाई बजती रही। घर में हलवाई लगे रहे और आंगन में ढोलक खनकती रही। गरीबों के लिए खजानों के मुंह खोल दिए गए। ठाकुर अमरसिंह का जैसा भव्य व्यक्तित्व था वैसा ही विशाल हृदय नन्हीं बेटी का सुन्दर मुख देख-देखकर वह विभोर हुए जाते थे।
ठकुराइन की प्यार-भरी गोद और चतुर दासियों की लाड़-भरी देख-रेख रुप देने में विधाता ने भी अत्यधिक उदारता से काम लिया था। उस पर मक्खन की मालिश, बेसन-चिरौंजी का उबटन। दिन दूनी रात चौगुनी वह चन्द्रमा-सी ही निखरने लगी। जब बालिका की पायलों की रुनझुन पूरे वातावरण को संगीतमय बनाने लगी…और हंसी से सारे घर में उजाला होने लगा,
पर न किलकारियों की गूंज हवेली में सुनाई दी, न तोतली भाषा में मां और बाबा के स्वर ने ठाकुर-ठकुराइन उडेला तो ठाकुर का माथा ठनका। राजवैद्य को बुलाने के लिए बग्धी दौड पडी।
नाड़ी छूते ही वैद्यजी की सफेद भवों के बीच दुख की रेखाएं सिमटने लगीं।
' सब ठीक है न वैद्यजी ?" अमरसिंह की रौबीली आवाज किसी याचक सी ही दीन हो गई थी।
‘‘ ठाकुर, बड़ा अन्याय विधाता ने तुम्हारे साथ किया है। यह बच्ची कभी बोल नहीं सकेगी।
नहीं वैद्यजी !’ अमरसिंह चीखे थे। कई दिन तक अन्न का दाना भी
ठाकुर-ठकुराईन के मुंह में नहीं जा सका था।
परन्तु नियति ने इस वाणी-विहीन बालिका को रुप और गुणों का अद्भुत
भंडार देकर मानो अपनी भूल का प्रायश्चित कर लिया था।
वसुधा जवान हुई तो ठाकुर को दिन-रात उसके विवाह की चिन्ता सताने
लगी, जगह-जगह लड़का देखने पुरोहित जी को भेजा जाने लगा।
बडे-बडे ठाकुरों के यहां अमरसिंह के पुरोहित जी का सम्मान होता, परन्तु
यह सुनते ही कि कन्या जन्म से ही गूंगी है, सबके उत्साह से खिले हुए चेहरे मुरझा जाते। अपनी झोली में एक नया बहाना लपेटे हुए उदास चेहरा लिए जब पुरोहित हवेली में घुसते तो अमरसिंह की आत्मा दहल जाती।
उसी समय किसी देवता के वरदान से ही उनके दोस्त अजितसिंह राजगड़ में शिकार खेलने आए। वसुधा के रुप और गुणों ने उन्हे अत्यधिक प्रभावित कर लिया। जब उन्होंने ऐसी बेटी की चिन्ता में दोस्त की आंखों में आंसू देखे तो मित्रता को संबंधो में बदलने के लिए उनकी आत्मा व्याकुल हो उठी।
"चिन्ता क्यों करते हो दोस्त छोटी-सी बात के लिए ! वसुधा की शादी होगी मेरे बेटे अर्जुन से।"
"क्या कहते हो अजित, तुम तो जानते हो कि मेरी बेटी बोल नहीं सकती।
"जानता हूं, पर उसकी आत्मा का एक-एक शब्द क्या उसकी आंखों में
नहीं झलकता रहता? इस देवी को वाणी की आवश्यकता ही क्या है। 'ना' नहीं करना दोस्त तुम्हें दोस्ती की सौगन्ध है।"
"तुम धन्य हो दोस्त, पर अगर अर्जुन न माना तब !"
"मेरा बेटा ऐसा नालायक नहीं हैं कि मेरी बात टाल देगा।"
अजितसिंह चले गए थे और पांचवें दिन ही गहने-कपडों और फल-मिठाइयों से भरे हुए शगुन के थाल लेकर दासियां आ पहुंची थी।
ठाकुर अमरसिंह की हवेली में विवाह की तैयारियां आरंभ हो गई। हफ्तों
पहले से दर्जी और सुनार बैठ गये, हलवाइयों के कढाव चढ गए। हाथी पर बैठे हुए सजीले दूल्हे को देखकर सभी ठाकुर को बधाई दे रहे थे,
‘‘बधाई हो ठाकुर साहब, लडकी के भाग खुल गए।" ठाकुर विभोर हुए जा रहे थे।
यह कोई भी नहीं जानता था कि विवाह की बेदी पर तो केवल अर्जुनसिंह का शरीर बैठा था, उसकी आत्मा तो दो साल पहले ही मुन्नी बाई के कदमों में गिरवी हो चुकी थी। पंडित के मंत्रोच्चारण के समय भी अर्जुनसिंह के कानों में घुंघरुओं की खनक और ठुमरी-दादरों का स्वर ही गूंज रहा था।
चाय-नाश्ते की ट्रे उठाए हुए नौकरानी रुक्मिणी और पीछे-पीछे देवरानी यशोधरा और उसकी चार साल की बच्ची दिव्या ने कमरे में कदम रखा। रुक्मिणी ने ट्रे स्टूल पर रख दी और चाय बनाने लगी। वसुधा अभी तक सबके आगमनसे बिलकुल बेखबर कैनवस पर चित्र ही बना रही थी। " दीदी चाय पी लो !" यशोधरा ने कंधे पर हाथ रखकर धीरे से कहा। वसुधा ने आंखें उठाकर प्यार से यशोधरा की तरफ देखा और चाय का प्याला हाथ में ले लिया।
रुक्मिणी ने नाश्ते की प्लेट आगे बढा दी, प्लेट में से नमकीन का टुकडा उठाकर वसुधा ने दिव्या के मुंह में रख दिया।
क्या करें।" वसुधा की ओर देखकर रुक्मिणी यशोधरा से कहने लगी।
देख-देखकर हमारा तो कलेजा मुंह को आता है। सारा दिन बैठकर बस बेचारी तसवीरों में ही अपना दुख भूलने की कोशिश करती रहती हैं। आप कर्ण भैया से क्यों नही कहती कि अर्जुन भैय्या को समझायें।"
इनकी बात का जेठजी पर क्या असर होगा रुक्मिणी, पिताजी तक का तो लिहाज छोड़ दिया था जेठजी ने। वह तो यह कहो वह अपना मान-आदर लिए हुए ही संसार से चले गए, नहीं तो न जाने कब उनके भी सम्मान की धज्जियां उड जाती।"
""ठीक ही कहती हो छोटी बहू, जो देवी-सी पत्नी पाकर आठ बरस में आठ घंटे का भी समय उसे नहीं दे पाया उसे दुनिया की कौन सी-ताकत समझा सकती है !” दिव्या नाश्ता करने लगी और वसुधा ने घूमकर यशोधरा की ओर देखा। जेठानी को अपनी और देखता हुआ पाकर यशोधरा चुप हो गई। वह जानती थी वसुधा बोल नहीं सकती, पर थोडा-बहुत सुन लेती है, और होठों के हिलने से भी थोडा-बहुत अर्थ समझ लेती है। अचानक भारी-भारी बूटों की आवाज से सभी चौंक पडे। ठाकुर अर्जुनसिंह नशे से लाल आंखें लिए कमरे में घुसे।
यशोधरा जल्दी से सर पर पल्ला लेकर उठ खडी हुई । दिव्या ने सहमकर वसुधा का आंचल पकड लिया और रुक्मिणी जल्दी-जल्दी चाय के बर्तन समेटने लगी। अर्जुनसिंह आकर वसुधा के पास खडे हो गए। एक फीकी मुसकान होठों पर लिए वसुधा ने उनकी ओर देखा। क्षण-भर वह उसके गले में पड़े हुए मोतियों के हार को देखते रहे, फिर एक झटके से उसे खींचा और जल्दी-जल्दी कमरे से बाहर निकल गए।
सभी हतप्रभ खडे रह गए। वसुधा अवाक् निश्चेष्ट खड़ी थी। कुछ देर वह वैसे ही खड़ी रही फिर हाथों में ब्रुश उठा लिया और एक ऐसी मुसकान के साथ यशोधरा की ओर देखा कि उसकी आंखो में आंसू आ गये।
“'जेठजी के अत्याचारों की अब सीमा हो गई है। आपको कुछ करना पड़ेगा।" अपने पति के हाथों में दूध का गिलास थमाते यशोधरा ने शयन-कक्ष में लेटे हुए कहा ।
"आज फिर कुछ हुआ था क्या ?"
"हां, शाम को हम लोग दीदी के कमरे में ही बैठकर चाय पी रहे थे कि वह लम्बे-लम्बे डग भरते हुऐ आए। मैं तो डर गई देखकर, नशे से लाल हो रही थी उनकी आंखे।"
"फिर क्या हुआ ?"
"फिर उन्होंने दीदी के गले से मोतियों का हार खींचा और वापस चले गए।
"क्या कहा, वह हार भी ले गए बेचारी भाभी का ! छोडा ही क्या है उनके
पास ! सभी कुछ तो नाचने वाली की भेंट चढ चुका है।"
यह बेचारी बेजबान कितना दर्द समेटे हुए है अपने आप में ! सारे दिन बैठ कर तसवीरें बनाती रहती है। "मैं तो सोचता हूं कही राजगढ़ में भी भैया की कीर्ति की ध्वजपताका न फहर जाए।'
यशोधरा और कर्ण बडी देर तक वसुधा की बातें करते रहे। बडी सहानुभूति थी दोनों को उससे, पर कर भी क्या सकते थे। अर्जुनसिंह से कुछ कहने का किसी का भी साहस न था। यूं ही समय गुजरता जा रहा था। अर्जुनसिंह का घर आना कम होता जा रहा था। अब तो वह पन्द्रह-पन्द्रह दिन तक नहीं आते थे। अब तो व्यापार के काम के लिए अपने कर्मचारियों को भी वह मुन्नी बाई के कोठे पर ही बुला लेते। एक बार अर्जुनसिंह बीस दिन बाद घर लौटे तो वर्षो पुराने बूढे मुनीम कुछ फाइलें हाथ में लिए आगे बढ आए
'मुझे इस समय जल्दी है, बाद में दिखाइएगा।"
मालूम नहीं अब तुम कब आओ बडे भैया इसीलिए आज ही देख लो, बहुत जरुरी है।” वह अर्जुनसिंह के सामने ही आकर खडे हो गए।
शाम को मुन्नी के यहां ही ले आइएगा, वहीं देख लूंगा।"
बडे भैया, कुछ तो मेरे बुढ़ापे का लिहाज करो। गोद में खिलाया है मैंने तुम्हें !”
“क्या कह दिया मैंने आपसे जो आपके बुढ़ापे का अपमान हो गया।"
“तो क्या बडा सम्मान दिया है तुमने मुझे, मैं आऊंगा उस नीच नाचने वाली के यहां ?"
“मुनीम चाचा” अर्जुनसिंह गरजे थे क्षण भर वह गुस्से से मुनीम जी की तरफ देखते रहे फिर लम्बी सांस लेकर बोले थे, "आपने मुझे गोद में खिलाया है इसी से छोड़े दे रहा हूं, नहीं तो कोड़े मार-मार कर होश ठिकाने कर देता। आपकी नौकरी अभी इसी समय खत्म होती है, जाइए अपना हिसाब कर लीजिए। अर्जुनसिंह तेजी से बाहर निकल गये । सभी लोग सन्न रह गए थे। पैंतीस वर्षों से घर में घर के सदस्य-सा ही सम्मान पाने वाले मुनीम जी के सम्मान की यूं धज्जियां उड़ती देखकर सभी की आंखे भर आई थीं। स्वाभिमानी लक्ष्मीचंद्र ने उसी क्षण सारे कागज एक ओर रख दिए। जब वह चलने लगे तो यशोधरा और वसुधा आंखों में आंसू भरे रास्ता रोककर खड़ी हो गई ।
‘‘मेरी बच्चियों, मेरी जान भी तुम लोगों के किसी काम आएगी तो देने में पीछे नहीं हटूंगा, पर अब यहां नहीं रुकूंगा, इतना अपमान...! (मुनीम जी की आंखे भर आई)
आज बड़े मालिक जिन्दा होते तो... "बेटा कर्ण, अब मेरा यहां रुकना किसी हालत में ठीक नहीं है।"
"आप शायद भूल गए चाचा, यह घर जितना बड़े भैया का है उतना ही मेरा भी तो है, मैं आपको कहीं नहीं जाने दूंगा!" " आप कहीं नहीं जायेंगे चाचा !" यह आवाज कर्णसिंह की थी।
"तुम्हारी भावनाओं के लिए मेरे मन में बहुत आदर है बेटा, पर मैं अब यहां नहीं रुकूंगा।" वह चलने लगे।
"मैं आपको यहां से नहीं जाने दूंगा चाचा, भैया के व्यवहार के लिए मैं आपसे क्षमा मांगता हूं!" कर्णसिंह उनके पैरों पर गिर पड़े।
'क्या करते हो बेटा !" लक्ष्मीचन्द्र ने उन्हें कंधो से पकडकर उठाते हुए कहा
"आप यहीं रहेंगे, आपको मेरे सर की सौगन्ध ! बड़े भैया चाहें तो अपने लिए दूसरा मुनीम रख लें, उनका कोई काम नहीं करेंगे अब आप !"
"इन्होंने अपने सर की सौगन्ध दी है चाचा, उसे तो न तोडिये। मैं आपके हाथ जोडती हूं !" यशोधरा सामने आकर खड़ी हो गई। "इतने प्यार और सम्मान से किये हुए आग्रह को मुनीमजी टाल न सके, उन्हें रुकना ही पड़ा। यशोधरा और वसुधा की आंखो में प्रसन्नता के आंसू आ गए।
तीन दिन बाद जब अर्जुनसिंह घर आए तो मुनीमजी को घर में मौजूद देखकर उनकी भृकुटियां तन गई।
"आप अभी तक गये नहीं हैं ?" वह खामोश ही रहे । "मैं आप ही से पूछ रहा हूं !" अर्जुनसिंह गरजे। अपनी बात का कोई उत्तर न पाकर उनका क्रोध और भी बढ गया, वह चीखकर बोले, "किसने रोका है आपको यहां ?"
‘‘मैंने।' कर्ण बडे भाई के सामने आकर खडे हो गए।
““कर्ण, तुम्हारी इतनी हिम्मत कैसे हो गई कि इसको यहां रुकने की आज्ञा दी !’
‘‘भैया, यह घर अकेले आपका नहीं है।’’
"कर्ण !" अर्जुन पैर पटकते हुए अन्दर चले गए। उसी दिन से हवेली को दो हिस्सों में बाटने के लिए अर्जुनसिंह ने दीवार खडी करवानी शुरु कर दी।
दीवार की एक-एक ईट के साथ वसुधा के मन का बोझ बढ रहा था,
परंतु वह बेजबान करती भी क्या, घायल दृष्टि से इधर-उधर देखती रहती फिर आंसू- भरी आंखो से हाथों में रंग और ब्रुश लेकर बैठ जाती।
अर्जुनसिंह के लिए अब जरा-सी रोक-टोक न थी, वह अब मुन्नी बाई को घर भी लाने लगे। जिस हवेली में गीता के श्लोक और दुर्गा सप्तशती के मंत्र गूंजते थे वहां अब मुन्नी बाई के घुंघरू खनकने लगे। कर्ण खून का घूंट पीकर रह जाते। यशोधरा असहाय-सी कैनवस पर बुश चलाती हुई जेठानी के पीले पड गए चेहरे की ओर देखती रहती।
एक दिन न जाने किस धुन में ठुमकती हुई मुन्नी बाई वसुधा के कमरे में पहुंच गई। वसुधा निर्विकार बैठी हुई तसवीर में रंग भरती रही। सारे कमरे में सजे हुए भव्य सजीव चित्रों को क्षण-भर मुन्नीबाई देखती ही रह गई। अर्जुनसिंह भी न जाने कब आकर पीछे खडे हो गए थे और प्रशंसात्मक दृष्टि से उन तसवीरों को देखती हुई अपनी प्रेयसी के चेहरे की ओर विभोर होकर देख रहे थे अपने कंधे पर अर्जुनसिंह के हाथ का स्पर्श पाकर मुन्नीबाई ने घूम कर उन्हें देखा।
कितनी अच्छी तसवीरें हैं।"
बहुत अच्छी लगीं ?"
हां, बहुत अच्छी हैं।"
तुम्हारे यहां पहुंच जायेंगी।‘‘ कहते हुए अर्जुन मुन्नीबाई की कमर में हाथ डाले हुए बाहर आ गए। वसुधा कैनवस पर आंखें गडाये ब्रुश फेरती रही। दूसरे ही दिन दो नौकरों के साथ अर्जुनसिंह वसुधा के कमरे में आ गए। वह बैठी हुई हमेशा की तरह चित्र बना रही थी। पति को अपनी तसवीरों की तरफ जाते देखकर उसने दृष्टि उठाई। अर्जुनसिंह ने नौकर को तसवीरें उठाने का आदेश दिया।
वसुधा सब कुछ समझ गई। नौकर झुककर एक तस्वीर उठाने जा ही रहा था कि वह आकर उसके सामने खड़ी हो गई।
" सामने से हट जाओ, यह मुन्नीबाई के यहां जाएगी !" अर्जुनसिंह बोले। वह वैसे ही खड़ी रही। हटती क्यों नही ?" वह गरजे । वसुधा और भी दृढता से तसवीरें पकडकर खडी हो गई। अर्जुनसिंह के क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने हाथ से पकडकर उसे घसीटना चाहा पर वह नहीं हटी। क्रोध से अर्जुनसिंह कांपने लगे, उन्होंने रिवाल्वर निकाल लिया।
वसुधा आंखो में आंसू भरकर इशारे से कहने लगी, "मार डालो मुझे पर यह नहीं दूंगी।"
वह प्रेम-विभोर नवविवाहित दम्पति के चित्र के सामने खड़ी हो गई और इशारा किया, "जानते हो वह तुम हो यह मैं हूं, मैं और तुम उसको..... नहीं।" फिर वह एक अत्यंत सुन्दर-से बच्चे के चित्र के सामने आई, "यह मेरा तुम्हारा... उसको नहीं"
फिर एक सुन्दर-सा सजा हुआ हवेली से मिलता-जुलता घर और सुन्दर बगीचे के चित्र को पकडकर खड़ी हो गई। अर्जुनसिंह ने पहली बार गौर से उन चित्रों की ओर देखा।
कहीं दम्पति आपस में प्रेमपूर्ण बातें कर रहे थे; कहीं बगीचे में पति पत्नी के जूडें में फूल जगा रहा था। कहीं सितार बजाती हुई जीवन-संगिनी को विभोर होकर देख रहा था। छीना-झपटी में एक चित्र नीचे गिर गया था। उसमें एक सुन्दर सा बालक पिता की ओर बाहें फैलाये खडा था।
जो कुछ वसुधा को जीवन में कभी नहीं मिला था वह उसने किस तरह कैनवस पर सजीव कर दिया था। अर्जुनसिंह देखते ही रहे। तो आज तक यह इसी कैनक्स पर जीवन को जीती रही है ! अर्जुनसिंह की आंखें भर आई, उन्होंने रिवाल्वर एक ओर फेंक दिया और गिरी हुई बच्चे की तस्वीर को उठाकर फिर से दीवार पर टांगने लगे।
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