MEHATVAKANSHA

MEHATVAKANSHA
बम्बई का शन्मुखानन्द हॉल सम्मानित अतिथियों से भरा हुआ था। महिलाओं के प्रमुख संगठन ने एक अनोखी परिचर्चा का आयोजन किया था।‘‘मैं क्या बनना चाहती थी ?" शहर-भर की महिला कलाकार, संगीतकार, फिल्म अभिनेत्रियां, लेखिकाएं एवं अनेक वरिष्ठ महिला अधिकारी परिचर्चा में भाग लेने के लिए उपस्थित थीं। आज के कार्यक्रम की मुख्य अतिथि थीं देश की जानी-मानी साहित्यकार एवं असंख्य पुरस्कारों की विजेता गार्गी देवी। पैंतालीस वर्ष की गार्गी देवी ने अनेक उत्कृष्ट ग्रंथों की रचना कर देश में ही नही वरन् विदेशों में भी ख्याति प्राप्त कर ली थी । सर्वप्रथम बोलने के लिए खडी हुई सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री रानी बाला– "सच ही तो है, जीवन में इंसान वह कहां बन पाता है जो वह बनना चाहता है; बनता तो वह वही है जो भाग्य उसे बना डालता है।" रानी बाला ने मधुर स्वर में बोलते हुए अपनी कहानी सुना डाली कि किस तरह वह डॉक्टर बनना चाहती थी, पर कॉलेज के एक नाटक में काम करते समय उस पर एक फिल्म निर्देशक की नजर पड गयी और भाग्य ने उसे उठाकर सिने-जगत् की ऊंचाईयों पर बिठा दिया। फिर बारी आयी थी सुप्रसिद्ध गायिका कंचन की, जो पुलिस अधिकारी बनने का सपना संजोये हुए बडी हुई थी और बन गयी थी शास्त्रीय संगीत की पारंगत ‘‘मां के कहने पर जबरन गुरुजी से संगीत सीखना पडता और जब पहला कार्यक्रम हुआ तो कुल पन्द्रह साल की थी मैं....." कंचन की आवाज हॉल में गूंज रही थी और गार्गी देवी तीस वर्ष पीछे के समय में लौट गयी थीं। वह भी तो उस समय कुल पन्द्रह साल की थी जब दुल्हन बनकर उस छोटे से गांव में पहुंची थीं। गांव की पहली पढ़ी-लिखी यानी मैट्रिक पास बहू। जमींदार पंडित देवधर की हवेली में सारा गाव उमड़ा पड़ा था। पंडित देवधर की खुशी का ठिकाना नहीं था। बेटा वकालत पढ रहा था और इतनी अच्छी बहू मिल गयी थी। दरवाजे पर बजती हुई शहनाई, कढ़ाव से उठती हुई पकवानों की सुगंध और आने-जाने वालों की बधाइयों के बीच अचानक एक दर्दनाक चीख उभरी थी, गार्गी का पति और पंडित देवधर का इकलौता बेटा चन्दर सीढ़ियों से गिर गया था और उसका सर फट गया था। जिस आंगन में ढोलक खनक रही थी, वहां खून ! घर में हाहाकार मच गया। खून में सराबोर अपने मृतप्राय पति के उस पहले और अन्तिम दर्शन की स्मृति इतने वर्षों में भी गार्गी देवी के मस्तिष्क में तनिक भी धूमिल नहीं होने पाई थी। नाते-रिश्ते की कुछ स्त्रियों ने दबे स्वर में बहू को मनहूस साबित करने की कोशिश की थी, पर तेजस्वी सास वेदवती की एक ही डाट में सब कमरों में दुबक कर अपना सामान सहेजने लगी थीं। सास-ससुर की स्नेहिल छाया, घर का काम-काज, पूजापाठ और मायके -ससुराल के आवागमन के बीच इंटर, बी.ए. और एम.ए. की सीढियां वह कब चढ गयी पता ही न चला। फिर जब ममतामयी सास ने नौकरी करने की भी अनुमति दे दी तो गार्गी देवी का जीवन और भी सहज हो उठा था। नौकरी करने वाली बहू ने सास-ससुर का आर्थिक बोझ हल्का कर बेटे की जगह ले ली थी। मायके, ससुराल और अन्य रिश्तेदारों में गार्गी देवी का सम्मान और बढ़ गया था । कर्तव्य की राह पर गौरव से बढती हुई गार्गी देवी के मन में दबी हुई भावनाएं यदाकदा कविता और कहानी बन कागजों पर उतरने लगी। यहां-वहां पत्र-पत्रिकाओं में छपने के बाद साहित्यिक और काव्य-गो के निमंत्रण भी आने लगे और फिर आरम्भ हो गया कलम की दौड़ का अन्तहीन सिलसिला। और इसी साहित्यिक दौड़-भाग में उनकी मुलाकात हुई थी शिवा पत्रिका के सम्पादक विनायक से। गोष्ठियों में गूंजती हुई उसकी उन्मुक्त हंसी, गंभीर-प्रभाव -शाली व्यक्तित्व, अनजाने ही उसके प्रति अपने हृदय में उमडते हुए भावानाओं के सागर को संस्कारों में जकड़ी हुई गार्गी देवी ने अमानवीय नियंत्रण की कठोर चट्टानों से रोका था। विनायक के विवाह में वह पूरे उत्साह से शामिल हुई थीं। उस दिनआकाशवाणी में उनकी एक कहानी की रिकाडिंग थी जब उन्हें विनायक के पिता बनने की सूचना मिली थी। रिकाडिंग खत्म होते ही वह अस्पताला भागीं पालने में लेटे हुए नवजात शिशु के पास ही पलंग पर आंखे बन्द किये लेटी थी वह अभिनव जननी, विनायक की पत्नी मालती। माथे पर सिन्दूर का बडा-सा टीका, अस्त-व्यस्त केश, जिनकी कुछ लटें उजले सफेद चेहरे पर झूल आयी थी; पीडा को झेलने की थकान चेहरे पर उभर कर उसे एक ऐसा अलौकिक आकर्षण प्रदान कर रही थी कि क्षण-भर को गार्गी देवी देखती ही रह गयीं। इतनी सुन्दर तो यह दुल्हन बनकर भी नहीं लगी थी ! सम्मोहन की सी दशा में खडी हुई गार्गी देवी सोच रही थीं। तालियों की गडगडाहट से हॉल गूंज रहा था। सुप्रसिद्ध चित्रकार रश्मि विमान-चालक बनने का स्वप्न देखते-देखते चित्रकार बन जाने की कहानी सुनाकर मंच से नीचे उतर रही थी। गार्गी देवी का नाम पुकार जा रहा था और हॉल एक बार फिर तालियों से गूंज रहा था। "हां तो बताइये गार्गी देवी, भला आप क्या बनना चाहती थीं ?" संचालिका ने मधुर स्वर में उनका स्वागत करते हुए कहा। अचानक गार्गी देवी के मस्तिष्क में अठराह वर्ष पहले अस्पताल के कमरे में आंखें मूंदे लेटी विनायक की पत्नी मालती की तसवीर घूम गई, पालने में लेटा नवजात सुन्दर शिशु और देवी प्रतिमा-सी जननी मालती.... "बोलिये न गार्गी देवी, क्या बनना चाहती थीं भला आप ?" माइक के सम्मुख विचारों में डूबी हुई खडी गार्गी देवी को संचालिका के शब्दो ने पुन:झकझोरा। '' मैं.... मैं मां बनना चाहती थी ।" लड़खड़ाते स्वर में अनायास ही गार्गी देवी के मुंह से निकाल गया। सारा हॉल स्तब्ध रह गया और गार्गी देवी की हिचकियां हॉल में उभरने लगीं