BAHUBHOJ

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गौरी की शादी को आज आठ दिन हो गये थे, यूँ तो मेहमानो से भरे हुए इस घर में हर दिन एक उत्सव की तरह ही बीत रहा था, लेकिन आज घर में कुछ अधिक ही चहल पहल थी; आज यहाँ 'बहू भोज' जो था.... गौरी को आज पहली बार ससुराल के रसोई घर में प्रवेश करना था, अपने हाथों से भोजन और पकवान बनाकर सबको खिलाना था... और सबका आशीर्वाद पाना था. वैसे इस घर में आने के बाद उसे इतने उपहार इतना आशीष और प्यार मिला था कि उसे संभालने के लिए गौरी को अपना आंचल छोटा लगने लगा था. ‘बड़ी भाग्यवान है गौरी' उसके मायके में सब यही कहते थे... फिर जब उसका ब्याह तय हो गया तो माता-पिता अपनी बेटी के भाग्यपर प्रसन्नता से विभोर हो गये थे. उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि बेटी की ‘एम. ए.' की परीक्षा समाप्त होते ही इतना अच्छा वर इतना ऊँचा घर अनायास ही मिल जायेगा.... और विवाह का प्रस्ताव लड़के वालों की तरफ़ से आयेगा.... शहर के जाने माने हार्ट स्पेशालिस्ट (हृदय विशेषज्ञ) डॉक्टर कृष्णकांत शुक्ला और डॉक्टर मनीशा के बेटे डॉक्टर संजीव का रिश्ता आया था गौरी के लिए, ऊँचा गोरा, सुन्दर संजीव जो हाल ही में विदेश से हार्ट स्पेशालिस्ट बनकर आया था. हुआ यूँ कि गौरी के मामा को अचानक दिल का दौरा पड़ गया... उन्हें डॉक्टर कृष्णकांत के नर्सिंग होम में भरती करना पड़ा. डॉक्टर कृष्णकांत और डॉक्टर मनीशा का यह भव्य नर्सिंग होम केवल इस शहर में ही नहीं बल्कि पूरे प्रदेश में प्रसिद्ध था... यहाँ रोगियों को उच्च स्तर का उपचार मिलता था. साथ ही अत्याधिक शिष्ट और मृदु व्यवहार भी; गंभीर से गंभीर रोगी भी अधिकांशत: यहाँ से पूर्ण स्वस्थ होकर ही जाते थे. गौरी के मामा शीघ्र ही स्वस्थ होने लगे थे. नित्य उन्हें देखने आने वाली गौरी पर डॉक्टर संजीव की नज़र पड़ गयी; वो किसी न किसी बहाने मामा के कमरे में आ जाता; यूँ तो डॉक्टर संजीव का व्यवहार बड़ा संयत था किन्तु मामा की पारखी नज़र नांप गयी थी कि इस सुदर्शन छोकरे को मात्र मामा की चिन्ता ही बार बार उनके पास खींच कर नहीं ला रही है, और उसे देखकर भान्जी के मुंह पर आने वाली चमक भी छिपी नहीं थी. घर आने के बाद मामा अवसर खोज ही रहे थे कि कब अपने इंजीनीयर जीजा महेश दीक्षित से गौरी और संजीव के रिश्ते की बात करें... कि डॉक्टर कृष्णकांत स्वयं ही पत्नी मनीषा के साथ अपने बेटे के लिए गौरी का हाथ मांगने आ पहुँचे... महेश दीक्षित बहुत ही प्रसन्न थे. भला डॉक्टर कृष्णकांत और उनके परिवार को शहर में कौन नहीं जानता है, कृष्णकांत के ताल्लकेदार पिता देवदत्त शुक्ला ने अनगिनत निराश्रित लोगों को आश्रय दिया है, कितनी ग़रीब लड़कियों का ब्याह करवाया है. कितने लड़कों को पढ़ाया लिखाया है..... ऐसे परिवार में जा रही है गौरी गौरी की प्रसन्नता का तो ठिकाना ही नहीं था; पर मन ही मन थोड़ा डर भी रही थी, उसने सुना था संजीव की दादी बड़े सख़्त मिजाज़ की हैं. ससुराल आकर गौरी का डर काफ़ी कम हो गया. दादी सख़्त तो हैं पर उससे सदैव बड़े प्यार से बात करतीं है; फिर पति और सास श्वसुर तो उसके ऊपर जैसे प्यार का सागर उडेल देना चाहते हैं. सब गौरी के रूप की प्रशंसा करते, लेकिन वो तो अपनी सास को देखकर विभोर होती रहती थी. डॉक्टर मनीषा तो बिल्कुल संगमरमर की तराशी हुई चलती फिरती प्रतिमा जैसी लगतीं थी. रोगी का आधा रोग तो इन्हें देखकर ही दूर हो जाता होगा. आज सुबह ही डॉक्टर मनीषा ने बड़े प्यार से गौरी को समझाया था. "देखो घबराना नहीं तुम्हारी मदद के लिए माहराजिन चाची हैं, और भी नौकर है...' घर की पुरानी माहराजिन को सब माहराजिन चाची ही कहते थे. सबकी मदद से गौरी तरह तरह के व्यंजन बनाने में जुटी हुई थी... सबसे अधिक सहारा दे रहीं थीं शालू बूआ... डॉक्टर कृष्णकांत की छोटी बहन और संजीव की एक मात्र बुआ थीं वो.... इसीसे संजीव उन्हें छेड़ता ही रहता था... आज भी बोला "अरे बुआ कभी तो फूफाजीं को अच्छा खाना खा लेने दिया करो, क्यो दौड़े छूटे रसोई घर में पहुँच जाती हे...' "भाग यहाँ से शैतान... मेरे हाथ की खीर खाकर ही बड़ा हुआ ..." बुआ लाढ़ भरे गुस्से से बोलीं. गौरी ने सबसे पहले दादी के लिए थाल परोसा... उसके एक हाथ में थाल था दूसरे में खीर का कटोरा. डॉक्टर मनीषा, शालू बुआ, माहराजिन चाची सब दादी के पास ही थीं... गौरी को पहले दादी के पैर छूने थे. लेकिन उसके तो दोनो हाथ घिरे हुए थे. शालू बुआ ने आगे बढ़कर थाल ले लिया... खीर का कटोरा गौरी ने अपनी सास को थमाना चाहा, लेकिन डॉक्टर मनीषा ने इशारे से गौरी को समझाया कि कटोरा माहराजिन चाची को दे दे.... गौरी ने वैसा ही किया जैसा सास ने कहा... दादी ने गौरी के बनाये हुए भोजन की अत्यधिक प्रशंसा की.. उपहार में कंगन दिये... फिर गौरी ने बाकी सबका खाना मेज़ पर लगा दिया, सब आकर बैठ गये सिवा डॉक्टर मनीषा के.... गौरी ने उनसे खाना शुरू करने का आग्रह किया वो धीरे से बोली "अभी नहीं." "क्यों नहीं मां, आप बँठिये न सबके साथ...' "नहीं गौरी पहले माहराजिन चाची का खाना निकाल कर दे आओ.' गौरी की समझ में कुछ नहीं आया, लेकिन उसने अपनी सास की आज्ञा का पालन किया. गौरी के हाथ का खाना खाकर डॉक्टर मनीषा ने प्यार से अपनी बहू के गले में हीरे का लाकेट पहनाया. अनेकानेक आशीर्वाद दिये. गौरी भाव विभोर हो गयी... किसीने रुपये किसीने ज़ेवर सभी ने गौरी को शगुन दिया. धीरे धीरे सभी मेहमान बिदा हे गये और घर के लोग अपनी सामान्य दिनचर्या पर वापस आ गये. सुबह आठ बजे ही डॉक्टर कृष्णकांत नर्सिंग होम चले जाते, दस बजे तक डॉक्टर मनीषा और संजीव भी चलें जाते. नर्सिंग होम घर से अधिक दूर नहीं था, इसीसे दोपहर का खाना सब घर पर ही खाते... शाम को सब फिर चले जाते.... कोई सीरियस केस हो तो डॉक्टर मनीषा और डॉक्टर कृष्णकांत को दोपहर में या कभी कभी आधी रात को भी भागना पड़ता था.... गौरी घर पर ही रहती, दादी की सेवा करती, माहराजिन चाची के साथ रसोई में काम करती... घर की देख भाल की ज़िम्मेदारी गौरी ने अपने ऊपर ले ली थी... उसकी सास ने कहा भी कि अगर वो आगे पढ़ना चाहे या कोई काम करना चाहे तो करे... लेकिन गौरी ने मना कर दिया; उसे घर की देखभाल और बड़ों की सेवा करना अधिक आवश्यक लगा.. गौरी नित्य ही कोई न कोई व्यंजन बनाती. किन्तु खाने से पहले डॉक्टर मनीषा हमेशा पूछतीं. "दादी ने खा लिया...' माहराजिन चाची के लिये निकाल दिया.' गौरी के मायके से आयी हुई मिठाई और अन्य खाने की वस्तुओं के लिए भी डॉक्टर मनीषा यही सवाल करतीं. यह साधारण सी बात अब गौरी को असाधारण लगने लगी थी, अचानक उसे ध्यान आया कि उसकी सास जितनी देर घर में रहती हैं, घर के अनेक काम करती हैं, पर रसोई में नहीं जातीं हैं... दादी मां का खाना या तो माहराजिन चाची ले जाती हैं या गौरी....यह क्या मामला है....? गौरी की उत्सुकता बढ़ने लगी. अपनी सास से कुछ पुछने का साहस वो नहीं जुटा सकी. पर संजीव से एक दिन उसने पूछ लिया, गौरी की बात सुनकर संजीव चौंक पड़ा फिर धीरे से बोला 'वो बात यह है कि दादी मां और माहराजिन चाची मां का छुआ नहीं खातीं इसीसे मां कभी किसी खाने की चीज़ को हाथ नहीं लगातीं जब तक वो लोग न खाले; इसीलिये मां कभी रसोई में नहीं जातीं.... " "क्या...?" गौरी मानो आसमान से गिर पड़ी, इतनी बड़ी डॉक्टर जिसके कुशल हाथों ने अनगिनत लोगों को जीवनदान दिया है, उसके हाथ का छुआ खाने में उसकी अपनी सास और घर की एक पुरानी नौकरानी तक को परहेज़ है... और वो सर झुका कर वर्षों से यह अपमान सह रही है, आख़िर क्यों...? गौरी का आहत मन विद्रोही हो उठा उसकी अन्तर आत्मा बार बार अपनी सास के लिए दुखी होने लगी लेकिन वो कर क्या सकती थी....? घर में सबे छोटी और फिर नयी बहू.... लेकिन इस घर में मां के साथ ऐसा अन्याय क्यों हो रहा है? कुछ भी हो वो इसका कारण जानकर रहेगी. इस बार जब शालू बुआ घर आयीं तो गौरी अकेले में उनसे बात करने का अवसर ढूंढ़नेलगी, वो जानती थी एक शालू बूआ ही हैं जिनसे सच जाना जा सकता है. पहले तो बुआ गौरी की बातो का जवाब देने में आनाकानी करतीं रहीं; लेकिन गौरी के अत्यधिक आग्रह करने पर उन्हें सच बताया. दादी मां के लाडले बेटे कृष्णकांत एफ.आर.सी. एस. करने विदेश गये थे बेटा बहुत बड़ा डॉक्टर बनकर लौटेगा, यह सोच सोच कर दादी फूली नहीं समाती थी, लेकिन साथ ही उन्हे चिन्ता भी लगी रहती कि उनके राजकुमार से दिखने वाले बेटे को कोई विदेशिनी अपने प्रेमजाल में फंसाने की कोशिश ना करे. डॉक्टर कृष्णकांत को किसीने फंसाने की कोशिश नहीं की वो ख़ुद ही डॉक्टर मनीषा के प्रेम में पागल हो उठे... भारतीय पिता और अमरीकी मां की संतान डॉक्टर मनीषा दादी मां के लिए किसी विदेशिनी से कम नहीं थी, उन्होंने जब सुना कि उनका लाडला बेटा ऐसी लड़की से ब्याह करना चाहता है तो उन्होंने आसमान सर पर उठा लिया. लेकिन होनी को कौन टाल सकता है. वैसे तो कृष्णकांत भारत आकर मां का आशीर्वाद लेकर, धूमधाम से विवाह करना चाहते थे, पर जब उन्होंने सुना कि उनकी मां पूरी तरह से विद्रोह तथा असहयोग करेंगी... तो उन्होंने क्लेश की स्थिति को टालने के लिए विदेश में ही विवाह कर लिया. घर की एक मात्र बहू ने जब ससुराल की देहरी पर पांव धरा तो न किसीने उसकी आरती उतारी ना ही मंगल गीत गाये गये; वो स्वयं ही अपना बॅग उठाकर घर में आ गयी, घर में सन्नाटा सा छा गया था... "लेकिन भाभी ने अपने कर्तव्यों से कभी मुँह नहीं मोड़ा, अपनी सास और सभी नाते रिश्तेदारों के मानसम्मानमें कोई कसर नहीं उठा रखी... और मेरी शादी में तो भाभी ने इतना किया, कि शायद ही किसी भाभी ने कभी इतना किया हा." शालू बूआ बोलती जा रही थी. "मेरी शादी के सारे काम उन्होंने अपने ऊपर ले लिये थे, एक से एक बढिया साड़िया, गहनो के सैट और क्रांकरी से लेकर गाड़ी तक उन्होंने स्वयं मेरे लिए ख़रीदी पूरी शादी भर चकर धिमी सी यहाँ वहाँ घूमती रहतीं.... फिर भी आजतक वो रसोईघर से बाहर ही हैं, यह घर जिसकी सुख समृद्धि के लिए उन्होंने अपना तन, मन, धन सब कुछ न्योछावर कर दिया उसमें वो एक अस्पृश्य है.... कहती हुई शालू बूआ की आंखों में आंसू आ गये थे, गौरी भी अपने आंसू नहीं रोक पा रही थी. गौरी के मन में विद्रोह की आग पूरी तरह भड़क उठी थी उसका मन अब दादी के निकट जाने का बिल्कुल नहीं होता था... पर औपचारिकता वश वो सब कुछ कर रही ती, दादी का मां के साथ व्यवहार अब गौरी के लिए अहनीय हो रहा था और एक दिन विस्फ़ोट हो ही गया. गौरी ने बड़े मनोयोग से खीर बनायी, और ले जाकर पूरा भरा हुआ कटोरा, अपनी सास के हाथों में थमा दिया "ज़रा देखिये तो मां सब ठीक है न?" डॉक्टर मनीषा एकदम घबरा गयीं "अरे यह क्या किया गौरी....?" अब अम्माजी और माहराजिन चाची इसे छूयेंगी भी नहीं." ‘‘बस कीजिये मां, आपका यह अपमान मुझसे सहन नहीं होता है, उन्हें इसको नहीं छूना है न छूयें. पर अब आप मेरी बनायी हर चीज़ सबसे पहले छुयेंगी.” बहू की बात सुनकर आश्चर्यचकित रह गयी डॉक्टर मनीषा फिर धीरे से बोली "ऐसा नहीं कहते गौरी, वो हमारी बड़ी हैं. हमारी मां हैं, हमें वही करना है जिससे वो खुश रहें, यह हमारा फ़र्ज है... हमारा धर्म हैं... हमें तो हर तरह से उनका ध्यान रखना है.... उनकी हर सुख-सुविधा को....हमारे लिए सबसे पहले उनका मानसम्मान है..... 'और आपका कोई मान नहीं है मां....? दादी तो दादी घर की माहराजिन भी... घर की मालकिन के हाथ का छुआ नहीं खातीं और आप इतने वर्षों से सर झुकाकर यह अपमान सह रहीं हैं. आखिर क्यों...? आप तो किसी तरह से भी मजबूर नहीं हैं." "जो लोग मजबूरी में फ़र्ज निभाते हैं... वो फ़र्ज नहीं निभाते, अपनी मजबूरी के आगे सर झुकाते है. मैंने किसी मजबूरी के आगे सर नहीं झुकाया अपने बड़ो की इच्छा के लिए उनकी ख़ुशी के लिए सर झुकाया है, जो मेरा धर्म है; जरा सोचो, अगर मैं उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम करती, तो कितना दु:ख होता उन्हें, उनका दिल दुखाकर क्या मैं एक पल के लिए भी सुखी रह पाती? - गौरी तुम मेरे अपमान से तिलमिला गयी; अगर मेरी सास को अपनी इच्छा के विरुद्ध इस घर में कोई समझौता करना पड़े तो क्या यह उनका अपमान नहीं होगा, और मैं कैसे सह सकूँगी अपनी सास का कोई अपमान...? परदे के पीछे खड़ी हुई दादी ने सब कुछ सुन लिया था; बहू का एक एक शब्द बार बार उनके कानो में गूँज रहा था; 'उनका दिल दुखाकर क्या मैं एक पल के लिए भी सुखी रह पाती...? 'उन्हें कोई समझौता करना पड़े तो यह उनका अपमान होगा. मैं कैसे सहूँगी अपनी सास का अपमान' हे भगवान मैंने अपनी ऐसी देवी जैसी बहू के साथ इतना अन्याय किया है... अज्ञान के ऐसेअंधेरे में डूबी हुई थी मैं कि अपने ही घर में फैले हुए इस उजाले को नहीं देख पायी. डॉक्टर कृष्णकांत ने देखा, उनकी मां आंगन में बैठी हैं... और एक नौकर सब्ज़ी का टोकरा उनके सामने रख रहा है, इधर उधर मेवा के पैकेट घी का डिब्बा और भी न जाने कितनी सामग्री रखी हुई है; सुबह सुबह मां ने यह सब क्यों मगवाया है. आज कोई ख़ास बात है क्या? " अम्मा, आज कोई त्योहार है क्या....? सुबह सुबह इतनी तैयारी में लगी हो डॉक्टर कृष्णकांत ने पूछा... "हा आज बहुत बड़ा त्योहार है..." नर्सिंग होम जाने को तैयार हो रही डॉक्टर मनीषा भी अपने कमरे से बाहर आयीं. 'कहाँ जा रही हो...?" दादी का स्वर सुनकर वो चौंक पड़ीं... "जी वो..." मनीषा ने कुछ कहना चाहा. "आज तुम कहीं नहीं जाओगी" दादी ने आदेश दिया. "जी..." सर झुकाकर डॉक्टर मनीषा बोली. "यहाँ खड़े रहने से काम नहीं चलेगा, देख रही हो न मैंने इतना सब कुछ मंगवाया है, जाकर रसोई में अच्छी अच्छी चीज़े बनाओ.... मैंने कई लोगों को खाने पर बुलाया है, शालू भी आ रही है..."दादी ने डॉक्टर मनीषा से अधिकार भरे स्वर में कहा... "क्या कह रही हो अम्मा?" डॉक्टर कृष्णकांत बोले. "जो तुमने सुना है वही कह रही हूँ किशन बेटा” "लेकिन अम्मा..." "लेकिन, वेकिन क्या, यह तो अपनी बहू के हाथ का बना सब कुछ खा चुकी, तो मुझे अपनी बहू के हाथ का बनाया स्वादिष्ट भोजन नहीं मिलना चाहिये....? आज सबको मेरी बहू के हाथ का खाना है... मैं 'बहू भोज' कर रही हूँ आज...' “अम्माजी...?" डॉक्टर मनीषा अपनी सास के पांव पर झुकीं1 "तुम्हें ही बनाना है सब कुछ..समझ गयीं न बहू." आज घर में ऐसी रैनक और हंसी ख़ुशी बिखर रही थी जो किसी त्योहार पर भी नहीं होती थी... गौरी और शालू बूआ तो ख़ुशी से नाच रहीं थी इधर उधर... दादी अपनी बहू के गले में अपना सतलड़ा हार पहना रहीं थीं डॉक्टर मनीषा की आंखो में खुशी के आंसू आ गये थे... दादी का स्वर पूरे घर में गूंज रहा था 'अरे ज़ोर मे ढोलक बजाओ मंगल गीत गाओ आज मेरी बहू का दिन है..... आज मेरे यहाँ 'बहू भोज' हुआ है...