NAGRIKTA

बुआ आज बहुत खुश दिखाई दे रही थीं.... बार-बार सबको बुला-बुला कर लड्डू थमा रही थीं। मां, चाची और हम सब भीं उन्हें इस तरह खुश देख कर बहुत खुश थें ।
मैंने जबसे होश संभाला… बुआ को हमेशा चिन्तित और दुखी ही देखा था, कभी ननदों की शादी के लिए, कभी सास श्वसुर की बीमारी के लिए, कभी फूफाजी की छोटी सी नौकरी के छूट जाने के लिए, कभी बच्चों का स्कूल से नाम कट जाने के लिए। लेकिन आज वो खुश थीं. पापा बार-बार कह रहे थें ।
"चलो बहुत अच्छा हुआ..... घरणीघर को जमीन मिल गयी।”
घरणीघर यानी फूफाजी। एक ईमानदार शिक्षक..... कठिनाईयों में भी अपने मूल्यों को बचाये, जैसे-तैसे घर की गाडी को खींचता हुआ। उनके पिता स्वतंत्रता सेनानी थें। बूढ़े बीमार, लेकिन घर वालों के लिए बेकार नहीं...उन्हे पेन्शन मिलती थी और उन्हीं के कारण फूफाजी को यह सरकारी जमीन मकान बनाने के लिए मिल गयी थी। बुआ का मकान बनना शुरु हो गया था। फूफाजी ने यहां वहां से कर्ज ले लिया था। जितनी मिल सकी ट्यूशन ले ली थी..... बस किसी तरह मकान बनकर तैयार हो जाये।
किसी तरह मकान बनकर तैयार हो गया।
दादाजी तो गृहप्रवेश से पहले ही अपनी महायात्रा पर रवाना हो गये लेकिन बुआ को मकान मालकिन बना गये। आधा मकान किराये पर उठा दिया गया.... आखिर कर्ज भी तो चुकाना था और तीनों बच्चों भुवन, छोटी और मुन्नी को पढाना लिखाना था। फुफाजी दिन-रात मेहनत करते थें। किसी तरह बच्चों को पढ़ा लिखा कर उनका भाविश्य संवारना था। हम भी अक्सर फूफाजी से पढने चले जाते थे। सचमुच ज्ञानका भंडार था उनके पास..... और विरासत में मिला हुआ देश प्रेम उनके एक-एक वाक्य से झलकता था।
समय अपनी गति से आगे बढता रहा। भुवन कॉलेज में पहुंच गयां हम सब भाई बहन घर परिवार वाले हो गये… लेकिन फूफाजी कमजोर हो गये... हम सब उनसे अपना ध्यान रखने को कहते और वो हंस कर जवाब देते....
"मैं बूढा नहीं हुआ हूं अभी तो बहुत सारे काम करने हैं मुझे....."
सच.... हमने काम के सिवा फूफाजी को कभी कुछ और करते देखा ही नही था। मैं बैंगलोर में बस गयी थी। कम ही आना जाना हो पाता था। सबके समाचार मिलते रहते थे। मां और चाची अपने नाती-पोतों में व्यस्त थी । बुआ, छोटी और मुन्नी के लिए लडका खोजने में लगी थी।
छोटी की शादी में मैं चाहकर भी नहीं जा सकी। बस शगुन भेज दिया था। बुआ ने खूब डाटकर चिट्ठी लिखी थी... तेरा आना जरुरी था या यह ढेर सारे रुपये भेजना.....?
बुआ, की इस डाट में कितना प्यार भरा हुआ था... मुझे अच्छी तरह याद है.... जब मैं कभी कई दिन तक उनसे मिलने नहीं जा पाती तो वो कैसे रूठ जाती थीं.. उन्हें मनाने का तरीका भी मुझे अच्छी तरह मालूम था। जाते ही कहती ।
"बुआ बड़ी भूख लगी है, जल्दी से कुछ खाने को दो।" वो बिना कुछ बोले लड्डू मठरी की तश्तरी मेरे सामने रख देती।
फिर रसोई में जाकर मेरी पसंद का गरमा-गरम कुछ बनाने लगती। जैसे-जैसे उनके हाथ के बने व्यंजन मेरे गले के नीचे उतरते जाते उनका गुस्सा कम होता जाता इस बार भी मैं यही करूंगी.... लेकिन कामों की व्यस्तता, घर की जिम्मेदारिया, मेरा जाना टलता ही गया। और एक दिन खबर मिली कि फूफाजी नहीं रहें। हे भगवान यह क्या हो गया....?
पूरे रास्ते बुआ की अनेक तस्वीरे मेरी आंखो में घूमती रहीं... हर शादी ब्याह, मुन्डन, कन्छेदन में बडी सी बिन्दी लगाये यहां-वहां भागती हुई ढोलक लेकर बैठी हुई..... एक बडी सी बिन्दी और कांच की चूडिया... बस इतना ही श्रंगार था उनका..... और वो भी... मैं कैसे देख पाऊंगी बुआ का वो श्रंगार विहीन रुप.....? लेकिन देखना तो था ही.... जब भगवान दुखों का पहाड़ देते हैं तो सहन करने की अद्भुत शक्ति भी दे ही देते है। बुआ को सांत्वना देने के लिए हमारे पास शब्द नहीं थे। मां और चाची हर समय उन्हें संभालने की कोशिश करती। हम सब वही करते थे....
भारी मन से मैं वापस लौटी। बुआ का उदास श्रीहीन मुख मेरी आत्मा पर हथौडे चोट कर रहा था। मैं आकर फिर अपनी दुनियां में व्यस्त हो गयी...बुआ का समाचार मिलता रहता वो धीरे-धीरे समान्य हो रही थीं। एक दिन खबर मिली कि भूवन विदेश चला गया। उसे वहां अच्छी नौकरी मिल गयी है।
मुन्नी भी काम रही थी। बुआ को कोई तंगी नहीं रहेगी सोच कर मुझे बेहद संतोष हुआ। मैं बहुत चाहकर भी वर्षो तक जाने का समय नहीं निकाल पायी.... फिर घर के सारे लोग बीच-बीच में आते जाते रहते ही थे। इस बार मां-पापा और चाचा-चाची का विशेष आग्रह था कि मैं लंबी छुट्टी लेकर आऊं, सब इकट्ठे होंगे। अपने उस परिवार के साथ लंबा समय बिताने को मैं भी तो व्याकुल थी। मैंने निश्चय कर लिया था इस बार जाना ही है। सब कुछ काफी बदल गया था... उस छोटे से शहर में.... नई इमारतें, Mall, Multiplex. क्या कुछ नहीं था.... वो सारे बच्चे बडे हो गये थें जिन्हें मैं गोद में उठाकर घूमा करती थी । सबके बीच में समय तेजी से भाग रहा था ढेर सारी बातें, ढेर सारे कार्यक्रम खूब धमाचौकड़ी जैसे हम फिर से अपने बचपन में लौट आये हों। एक दिन अचानक बुआ आयीं हाथों में ढेर सारे मिठाई के डिब्बे लेकर, बहुत खुश थीं वो... हम सबको दावत देने आयी थी। कल उनके यहां बहुत बड़ी पार्टी है, भुवन को विदेशी नागरिकता मिल गयी थी। बुआ का उल्लासित चेहरा देखकर मुझे बाईस साल पहले का वो दिन याद आ रहा था। जब बूआ को ज़मीन मिली थी, दादाजी के स्वतंत्रा सेनानी होने का पुरस्कार बूआ का घर एकदम नया और आलीशान हो चुका था..... भव्य सजावट से जगमगा रहा था। बढिया साड़ी में सजी हुई बुआ, इधर-उधर भाग-भाग कर सारे इंतज़ाम देख रही थीं, अतिथियों का स्वागत कर रही थीं, माथे पर बडी सी बिंदी तो नही थी पर कानों में हीरे दमक रहे थे... विदेशी हीरे....
उस पूरे वातावरण में मुझे अजीब सी घुटन महसू हो रही थी। ऐसी घुटन तो मुझे बुआ के यहां कभी नहीं हुई बुआ के उस छोटे से सीलन भरे घर में भी नहीं, जहां वो किराये पर रहती थी।
एक स्वतंत्रता सेनानी के बलिदानों की नींव पर रखा हुआ, एक कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार शिक्षक के खून पसीने से सींचा हुआ वो घर आज जगमगा रहा था, इसलिए कि उसके उत्तराधिकारी को विदेशी नागरिक्ता मिल गयी थी। क्या हमारे अपने देश की नागरिकता का कोई मूल्य नहीं है.....? तो फिर किसलिए दादाजी और उनके जैसे अनेक सेनानियों ने इतना संघर्ष किया ? इसलिए कि उनके वंशज विदेशी नागरिकता पाकर गौरवान्वित हो .....?
Back to Home
Like
Share