BASANT FERIYA PART 1
तुम मेरी बहन के साथ ऐसा नहीं कर सकते!" बसंत चिल्लाया, उसकी आंखों में आंसुओं का सैलाब था, पर अंग्रेज़ जनरल डेविड ने उसकी एक भी नहीं सुनी। चार सिपाहियों ने बसंत को पकड़ कर पेड़ से बांध दिया और उसकी बहन वर्षा को खींचते हुए ले गए।
बसंत की चीखें जंगल में गूंजती रहीं। वह हालात से लड़ रहा था, पर कुछ नहीं कर सका। उसकी आंखों के सामने उसकी बहन की चीखें, गिरते आंसू, फटे कपड़े सब कुछ हो रहा था और वह बेबस बस देखता रहा।
एक भयावह तूफान उसकी दुनिया उजाड़ कर चला गया। वर्षा लहूलुहान और बेहोश पड़ी थी। अंग्रेज जा चुके थे एक भाई की दुनिया उजाड़कर।
पेड़ से बंधा बसंत चारों तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देखता रहा। मगर दूर दूर तक कोई नज़र नहीं आया। वर्षा के बिखरे कपड़ों को देख उसका कलेजा तड़प उठा। शाम हो चुकी थी। जंगल में अंधेरा गहराने लगा था। तभी कुछ आदिवासी शिकारी वहाँ पहुँचे।
उन्होंने बसंत और वर्षा को देखा और तुरंत समझ गए कि यहां कुछ भयानक घट चुका है। उन्होंने बसंत के बंधे हाथ खोले। हाथ खुलते ही वह दौड़ कर वर्षा के पास गया, उसके बिखरे हुए कपड़े ठीक किए, उसे गोद में उठाया और एक ऐसी चीख मारी जिसे सिर्फ वही महसूस कर सकता था।
वर्षा की आंखें अधखुली थीं। वह कुछ कहना चाह रही थी। दर्द में लिपटी हुई उसने भाई का हाथ कसकर पकड़ा और उसके आखिरी शब्द थे
"भैया..."
वर्षा की आंखें सदा के लिए बंद हो गईं।
बसंत वहीं बेसुध गिर पड़ा। उसे लगा जैसे उसके शरीर से सारी शक्ति निकल गई हो। हाथ कांपने लगे। एक आदिवासी ने अपने धनुष बाण वहाँ रखकर अपनी भाषा में कहा, "ये तुम्हारी सुरक्षा के लिए हैं।"
ये गांव एक पुराने घने और विशाल जंगल के नजदीक बसा हुआ था
जहां ख़तरनाक किस्मत के जंगली जानवर कभी भी कहीं भी दिख जाते थे
पर ये कृत्य किसी जानवर का नहीं, जानवर से भी बद्तर अंग्रेज़ हुकूमत के दरिंदों का था...उस मंज़र को देखने वाले हर व्यक्ति की साँसें अटक गई सब स्थिर थे
लोग दौड़कर आए, देखा बसंत कांधे पर धनुष बाण लटकाए, गोद में अपनी मृत बहन को लिए खड़ा था। भीड़ में से बसंत की मां जानकी चीखती हुई आगे बढ़ी, "क्या हुआ वर्षा को...!"
बेटी की हालत देखकर जानकी सदमे में गिर पड़ी। होश आया तो देखा, बसंत एक ओर दीवार से सिर टिकाए बैठा था। खाट पर वर्षा की निर्जीव देह पड़ी थी।
शायद जानकी ने कभी इतने आंसू नहीं बहाए थे, जितने उसने बेटी के लिए बहाए। गांववालों ने मिलकर वर्षा को कफन पहनाया। अंतिम विदाई के लिए शवयात्रा शुरू हुई।
चिता पर लेटी वर्षा को बसंत एकटक देख रहा था। उसके आंसू थम नहीं रहे थे। उसका मन भीतर ही भीतर चूर हो रहा था। वह घुट रहा था। उसे वर्षा की कही बातें याद आ रही थीं...
यूं तो मैं लड़ती नहीं
पर लड़ सकती हूँ
बड़ी तो हो रही हूं
पर आपकी नज़र में छोटी हूँ
मेरे सर पे हाथ रखते हो
चुपके से जब मैं सोती हूं
तो फिर क्यों डांटते हो मुझे
जब पता है कि मैं रोती हूं l
तुम्ही बसंत, तुम्हीं किशन, तुम्हीं कन्हैया
माँ बाप की याद आने नहीं देता
मेरा भैया… l
याद है मुझे
मैं डर गई थी सपनों में उन परछाइयों से
तब तुमने मुझे सिखाया था
निर्भय बनाया था,
निडर रहना मन की उन गहराइयों से,
कभी बहन फंस गई तो
बचा तो लोगे ना भैया मुझे तुम कसाइयों से?
याद मुझे रखना कभी भुला मत देना
तुमसे दूर जाना होगा
ये कहके रुला मत देना
कह नहीं पाती कभी पर
ये कहना चाहती हूँ
तुम जैसा भाई बस हर जन्म में चाहती हूं ….
डोम की आवाज़ ने बसंत को यथार्थ में लौटाया, "अब चिता को अग्नि दो।"
बसंत पत्थर बना खड़ा रहा। फिर उसने चिता को अग्नि दी। चिता जलने लगी। राख उठाकर उसने एक कपड़े में बांधा और धनुष बाण लेकर निकल पड़ा जनरल डेविड की हवेली की ओर...
हवेली रोशनी से नहाई हुई थी। जनरल डेविड की पत्नी फेरिया और उनकी दो महीने की बेटी लूरा पहली बार भारत आए थे। फूलों से सजे फर्श पर फेरिया के पांव पड़ते ही वातावरण सुगंधित हो उठा था।
डेविड हाथ फैलाए उसकी ओर बढ़ रहा था, तभी अंधेरे से एक बाण निकला और सीधा उसके सीने में जा धंसा। चीख की आवाज़ गूंजी।
फेरिया चीख पड़ी। सिपाहियों ने दौड़कर हवेली को घेर लिया और हमलावर को पकड़ लिया गया।
वो कोई और नहीं, बसंत था जिसके कांधे से अब भी ताजे खून की गर्मी टपक रही थी, और आंखों में वो ज्वाला थी जो किसी का सब कुछ छीन लिए जाने के बाद ही जन्म लेती है।
बसंत को जंजीरों में जकड़कर कालकोठरी में डाल दिया गया। डेविड की जान डॉक्टरों ने किसी तरह बचा ली, लेकिन उसकी आंखों में अब सिर्फ क्रूरता थी। उसने आदेश दिया, “उसे पेश किया जाए और ऐसी सज़ा दी जाए जो सारी हिंदुस्तानी कौम के लिए चेतावनी बन जाए।”
अगले ही दिन बसंत को नंगा कर सबके सामने खड़ा किया गया। उसकी मां जानकी सिसकती हुई वहां पहुंची और डेविड के पैरों में गिरकर बोली, “मेरे बेटे को माफ कर दो... उसकी बहन को तुमने छीन लिया, अब मां को मत जुदा करो उसके बेटे से।”
डेविड ने एक क्रूर मुस्कान के साथ उसकी ओर देखा और सैनिकों को आदेश दिया, “इस बुढ़िया पर भी कोड़े बरसाओ... ताकि इसे भी याद रहे कि ये राज ब्रिटिश साम्राज्य का है।”
फेरिया सब देख रही थी। उसके भीतर भी कुछ टूट रहा था। एक मां की करुणा उसके सीने में दस्तक दे रही थी। मगर वह कुछ कह नहीं सकी।
डेविड ने ऐलान किया, “अगर यह लड़का 30 दिन बिना खाए पिए जिंदा रह गया, तो इसे इसकी मां को सौंप दूंगा... मगर तब तक इसे कालकोठरी में बंद रखा जाएगा, बिना रोटी, बिना पानी, बिना रोशनी।”
अगले दिन, फेरिया चुपके से कोठरी के पास पहुँची। सिपाहियों से छिपकर वह दरवाज़ा खोलती और अंदर जाती। वहां बसंत घायल, निर्बल, खून से सना पड़ा होता। फेरिया के हाथ में एक लोटा होता जिसमें उसके शरीर से निकला दूध होता। वह उसे धीरे से पिलाती। ज़ख्मों पर मरहम लगाती। फिर ज़मीन पर कोड़ा पटकती और चिल्लाती, “कैसा लगा आज का दंड, बसंत?”
हर दो दिन बाद वही क्रम दोहराया जाता। कोड़े ज़मीन पर गिरते, दर्द की चीखें नकली होतीं, पर बसंत का संघर्ष असली था। डेविड को समझ नहीं आ रहा था ये लड़का आखिर जिंदा कैसे है? शक होने लगा कि कहीं कोई मदद तो नहीं कर रहा? उसने सिपाहियों को हिदायत दी अब कोई भी उस कोठरी के पास नहीं जाएगा, चाहे वह खुद फेरिया ही क्यों न हो। अब बस निगरानी होगी।
फेरिया को भी कोठरी से दूर कर दिया गया। बसंत अब सच में अकेला था… पर अब उसके भीतर कुछ और उग चुका था प्रतिशोध से परे, अब उसमें उम्मीद थी…
30वां दिन। डेविड ने सबके सामने बसंत को पेश करने का आदेश दिया।
डगमगाते हुए कदम, टूटी हुई सांसें “तो, अब बताओ… कैसे जिंदा हो तुम?” डेविड ने पूछा।
इस बार फेरिया ने बात संभाली, “जैसा कि वादा किया गया था, अगर यह जीवित रहा तो इसे इसकी मां को सौंपा जाएगा। मैं अपने पति की न्यायप्रियता पर गर्व करती हूं।”
सभा में तालियाँ गूंज उठीं। डेविड मुस्कराया, पर भीतर से जल रहा था।
उसी शाम जानकी और गांववाले आए। बसंत, कमज़ोर शरीर के बावजूद सीधा खड़ा हुआ।
जब मां ने पूछा, “बेटा, कौन था जिसने तुझे जिंदा रखा?”,
बसंत की आंखों से आंसू बह निकले। उसने कहा, “मां, वो भी तेरी तरह मां थी। हर दो दिन बाद आती थी, दूध पिलाती थी, जख्मों पर मरहम लगाती थी। वो मेरी फरिश्ता थी… वो फेरिया थी।”
उस रात, फेरिया हवेली की छत पर खड़ी रही। उसका मन भारी था। अपनी बेटी लूरा को गोद में लिया और आसमान की ओर देखा। फिर एक पत्र निकाला और उसे डेविड के नाम छोड़कर कमरे में रख दिया।
सुबह डेविड के हाथ में वह पत्र था तलाक का नोटिस।
उसमें लिखा था: मैंने इंसान मारे नहीं, शैतान मारे हैं। मैं डेविड की पत्नी जरूर हूं, पर किसी राक्षस की सहमति की गुलाम नहीं। मेरी आत्मा मुझे माफ नहीं करेगी अगर मैं बसंत को मरने दूं। मैं जा रही हूं… अपने भीतर की मां को बचाने।
फेरिया अपनी बच्ची के साथ हवेली छोड़ चुकी थी… और बसंत वो अब अपनी मां के साथ गांव के एक कोने में बैठा था, बहन की राख को पास रखे, उसकी कविता याद करता हुआ।
"याद मुझे रखना कभी भुला मत देना
तुमसे दूर जाना होगा
ये कहके रुला मत देना
कह नहीं पाती कभी पर
ये कहना चाहती हूँ
तुम जैसा भाई बस हर जन्म में चाहती हूं …"
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