BASANT FERIYA LAST PART

BASANT FERIYA LAST PART
बसंत बच गया था। यह उसकी ताक़त नहीं थी, बल्कि किसी और की दया थी जिसने उसे ज़िंदा रखा। फेरिया ने अपनी जान जोखिम में डालकर यह सुनिश्चित किया कि बसंत मरे नहीं। हर दो दिन में, वह कोड़े लेकर जेल आती, लेकिन सच में वह उसे अपना दूध पिलाकर ज़िंदा रखती थी। वही एकमात्र चीज़ थी जो उसे मौत से बचाए हुए थी। वह उसकी अभिभावक बन गई थी चुपचाप, लेकिन निडर। जब तीस दिनों के बाद बसंत को आज़ादी मिली, तो उसे राहत नहीं मिली उसे उलझन हुई। वह अपनी मां जानकी के साथ जेल के आंगन से बाहर निकला, उसकी आंखों में ढेर सारे सवाल थे, जिनके जवाब उसके पास नहीं थे। वह ज़्यादा बोला नहीं। उसका शरीर कमज़ोर था, लेकिन उसकी आंखों में एक ठहराव था एक तूफ़ान के बीच की शांति। उसी रात वह श्मशान घाट के पास उस पेड़ के नीचे बैठा, जहां उसकी बहन वर्षा की चिता जलाई गई थी। वह अब भी नहीं रोया। उसकी मां ने उससे पूछा कि वह कैसे बचा, तो उसने बस इतना कहा, “एक और मां ने मुझे ज़िंदा रखा।” फिर उसने सितारों की ओर देखा और कहा, “अभी मेरा काम ख़त्म नहीं हुआ।” दो हफ्ते बाद, फेरिया ने देश छोड़ दिया। उसने डेविड से तलाक़ ले लिया और जाते वक्त एक चिट्ठी छोड़ी: “तुम मर्द नहीं, एक नासूर हो।” अंग्रेज़ अफसरों ने उसे जाने दिया, शर्मिंदा थे, लेकिन चुप रहे। डेविड के अहंकार को यह स्वीकार करने में कठिनाई हो रही थी कि उसे एक औरत ने झकझोर दिया था सिर्फ उसे छोड़कर नहीं, बल्कि बसंत को ज़िंदा रखकर भी। बसंत गांव नहीं लौटा। वह ग़ायब हो गया। महीनों तक कोई ख़बर नहीं थी। कुछ कहते थे वह मर गया। कुछ कहते पागल हो गया। पर असलियत यह थी कि वह जंगल में गया था छिपने नहीं, खुद को फिर से गढ़ने के लिए। जंगल के भीतर उसे कई लोग मिले टूटे हुए लोग। आदिवासी जिन्हें लूटा गया था, गांववाले जिनके परिवारों को जला दिया गया, सिपाही जो अब किसी झंडे के नीचे सेवा नहीं करना चाहते थे। बसंत ने बदले की बात नहीं की। वह बस सुनता रहा। आग के पास बैठता, उनका खाना खाता, और जब समय आया, अपनी कहानी सुनाई। वह भाषण नहीं देता था। वह सवाल पूछता था। “और कितनी रातें हम डर में बिताएँगे?” “चुप्पी की कीमत क्या होती है?” लोग उसके पीछे श्रद्धा से नहीं, सच्चाई के लिए चल पड़े। धीरे-धीरे एक समूह बना। बिना नाम के, बिना नारे के। बस आंखें, जिन्होंने बहुत कुछ देखा था, और हाथ, जो अब किसी और को तकलीफ में नहीं देख सकते थे। बसंत ने खुद को तैयार किया तीरंदाज़ी, छिपना, जंगल में जीना। उसका कोई गुरु नहीं था। दर्द उसका शिक्षक था। भूख उसका अनुशासन। हर तीर पर वह एक नाम लिखता अपनी बहन वर्षा का। एक रात आग के पास बैठकर उसने कहा, “अब उन्हें एक-एक करके ख़त्म करेंगे। बदले के लिए नहीं। संतुलन के लिए।” पहला निशाना था हेनरी जो अब अफ़ीम का धंधा चला रहा था। बसंत ने नौकर बनकर उसके अड्डे में घुसपैठ की। एक रात जब सब सो गए, बसंत ने दरवाजे बंद किए। हेनरी को कुर्सी से बांधा और उसकी गोद में थोड़ी राख गिराई। “पहचाना?” हेनरी ने थूक दिया। बसंत ने चुपचाप खंजर निकाला और उसकी गर्दन रेत दी। कोई गुस्सा नहीं। कोई चिल्लाहट नहीं। बस न्याय। दूसरा था चार्ल्स जो अब एक ब्रिटिश सैन्य शिविर में था। वह हर शाम नदी किनारे टहलता था। एक दिन तेज बारिश में बसंत ने हमला किया। एक को पानी में गिराया, दूसरे को रस्सी से घोंटा। चार्ल्स भागा, लेकिन तीर उसकी पीठ और पैर में लगा। चार्ल्स गिड़गिड़ाया, “मैं बस आदेश का पालन कर रहा था!” “तो कुत्ते की मौत मर,” बसंत ने कहा। उसे बरगद से लटकाया। एक चिट छोड़ी: “आदेश पूरे हुए, न्याय पूरा।” तीसरा था मार्टिन जो अब एक पादरी बन चुका था। बसंत ने उसकी तीन प्रवचन सुनी। चौथे दिन, चर्च के वेदी पर राख बिछाई और एक पर्चा छोड़ा: “वह भी ईश्वर को मानती थी।” उस रात मार्टिन ने खुद को फांसी लगा ली। अब बचा था गिल्बर्ट। नया नाम लेकर कलकत्ता में था। लेकिन बुराई हमेशा अपने निशान छोड़ती है। बसंत ने उसे पांच महीनों तक ट्रैक किया। एक रात, उसकी बग्घी रुकवाई। आग के बहाने रास्ता बंद किया। खिड़की से झांका। गिल्बर्ट बोला, “तू… तू मरा नहीं?” बसंत बोला, “नहीं। मैं वो याद हूं जिसे तू जला नहीं पाया।” फिर खंजर उसके सीने में उतार दिया। एक बार फिर शांति से, चुपचाप। अब बस डेविड बचा था। वह अब बूढ़ा था, शर्मिंदा, अकेला। शराब में डूबा, बर्बाद। कभी-कभी नींद में वर्षा का नाम चिल्लाता। कभी फेरिया की सर्द निगाहें उसे डरातीं। एक सुबह उसे एक लिफाफा मिला। उसमें बस थोड़ी सी राख थी। और एक चिट्ठी: “जो कुछ तूने छुआ, वो बर्बाद हुआ। ये बदला नहीं है। ये संतुलन है। जब तक तेरी सांस चल रही है, डरता रह। और तेरे ईष्ट से प्रार्थना कर कि मैं तुझ तक न पहुँच पाऊँ क्योंकि जिस दिन तूने मुझे देख लिया, मैं तुझे देख लूंगा और तेरे शरीर के कितने टुकड़े होंगे इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता हूँ,” यह चिट्ठी पढ़ ही रहा था डेविड कि तभी उसका कनिष्ठ ब्रिटिश अधिकारी खुश होते हुए जनरल डेविड की बेटी का खत लेकर आता है बड़े हर्षोल्लास के साथ और जनरल को देता है यह बोलते हुए,”सर, अंततः आपके लिए आपकी बेटी का पत्र आ गया, आप पढ़ें, मैं कल सुबह आपको मिलता हूँ, शुभ रात्रि सर !” उसकी बात का response देते हुए जनरल डेविड सब कुछ भूलकर उस चिट्ठी को जल्दी में खोलता है और उसकी आंखों में खुशी के आंसू डबडबाने लगते हैं वो चिट्ठी खोलके पढ़ता है … Mr. David, आपका पत्र मिला। आपने लिखा है—“मैं तुम्हें बहुत याद करता हूं, बस एक बार तुम्हारा चेहरा देखना चाहता हूं।” कितनी अजीब बात है, आप मुझसे यह उम्मीद करते हैं, जब आपने किसी और बाप की बेटी किसी की बहन की ज़िंदगी का चिराग हमेशा के लिए बुझा दिया था। क्या आपको याद है, उसने भी कभी अपनी मां की गोद में सिर रखा होगा? वह भी अपनी सहेलियों के साथ खिलखिलाई होगी। उसने भी सपने देखे होंगे शादी के, अपने घर के, अपने बच्चों के। आपने वह सब रौंद डाला। उसकी चीखें सुनीं और अनसुनी कर दीं। उसे मिट्टी में मिला दिया। क्यों? क्योंकि वह आपके जैसे लोगों की नजर में सिर्फ एक गुलाम थी? आज मैं सोचती हूं, अगर मैं उस रात उसके पास होती, तो मैं भी उसकी तरह रोती, गिड़गिड़ाती। क्या तब भी आपका दिल नहीं पसीजता? क्या मेरी भी चीखें आपको नहीं रोक पातीं? आपकी तस्वीर मेरी आंखों में बसी है, एक वर्दी वाला आदमी, जिसकी आंखों में अपनी बेटी के लिए प्रेम है और दूसरों की बेटियों के लिए वहशीपन। मुझे उस दोहरेपन से घिन आती है। मैं आपकी संतान होते हुए भी आपको अपना कुछ नहीं मानती। मैं उस पिता की पीड़ा महसूस करती हूं, जिसकी बेटी को आपने कुचला। क्योंकि उसका दुख मुझे कहीं ज्यादा अपना लगता है। आपकी हालत के बारे में सुना बीमार हैं, अकेले हैं, नींद नहीं आती। मुझे कोई दुख नहीं होता। मुझे कोई संतोष भी नहीं होता। बस यही लगता है, काश आपकी हर नींद में वही लड़की आए, रोज आपके सपनों में आके आपसे अपनी मौत का और उस वहशीपन का जवाब मांगे, आपको कोसे आपकी आंखों में झांके और पूछे “क्यों?” ताकि आपकी आत्मा भी वही दर्द झेले, जो आपने दिया। ओ हाँ … आपने मुझसे मेरी तस्वीर मांगी है। तो जान लीजिए, मैं वैसी ही दिखती हूं जैसी वह दिखती थी। उसी उम्र की, उसी की तरह मासूम आंखों वाली। मैं डरूंगी नहीं, लेकिन मैं उसकी याद को हमेशा जिंदा रखूंगी। और अपने बच्चों को भी सिखाऊंगी कि कोई भी इंसान किसी का गुलाम नहीं है। कोई भी बेटी किसी की लूट की चीज नहीं है। मैं आपको अपना कुछ नहीं मानती। आप मेरे लिए मर चुके हैं। मैं दुआ करती हूं कि यह पत्र आपके हाथों में कांप उठे, और ये शब्द आपके दिल में नश्तर बनकर चुभ जाएं। वह, जिसे आप कभी अपनी बेटी कहने लायक नहीं रहे। उस रात डेविड की मौत हो गई। अकेले। खामोशी से। बसंत फिर गांव नहीं लौटा। कुछ कहते हैं वह पहाड़ों में रहता है। कुछ कहते मर गया। पर कुछ बहुत कम जानते हैं कि वह अब भी देश भर में घूमता है। अब नहीं मारता। बस याद दिलाता है: राख कभी भूलती नहीं। गांव में जानकी रोज़ सुबह दीपक जलाती थी। एक वर्षा के लिए, एक बसंत के लिए। लोग आते, उसे अजीब घटनाएं बताते। वह बस मुस्कुरा देती। “मेरा बेटा अपना धर्म निभा रहा है।” वर्षों बीते। उसका शरीर झुका, पर आत्मा सीधी रही। एक ठंडी सुबह दीपक नहीं जला। जानकी शांति से चली गई। हाथ में दो चीजें थीं वर्षा की कविता की किताब, और बसंत की दी हुई राख की पोटली। वह चुपचाप चली गई। मानो जानती थी… उसके बच्चों ने अपना कार्य पूरा कर लिया था। और दुनिया ने उनकी कहानी सुन ली थी।