DR. ANJALI PART 1

DR. ANJALI PART 1
अंजलि का जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था, जहाँ माँ एक सीधी-सादी गृहिणी थीं और पिता राजेश वर्मा ऑटो चलाते थे, जो कभी-कभी फल और सब्ज़ी भी उठाया करते थे ताकि घर का खर्च पूरा हो सके। उनके पास ज़िन्दगी के लिए बहुत ज़्यादा नहीं था, लेकिन इज़्ज़त और ईमानदारी से भरी ज़िन्दगी ज़रूर थी। अंजलि बचपन से ही चुपचाप, गम्भीर और पढ़ाई में तेज़ लड़की थी। वह हमेशा स्कूल में टॉपर रहती, लेकिन उसके घरवालों को यह लगने लगा था कि एक दिन यह पढ़ाई-लिखाई भी रसोईघर और चौके की सीमाओं में सिमट जाएगी। रिश्तेदारों की फुसफुसाहटें, पड़ोसियों की टिप्पणियाँ और दादी की पुराने ख्यालों वाली नज़रे अब अंजलि की आज़ादी पर भारी पड़ने लगी थीं। लेकिन अंजलि वर्मा ने हमेशा डॉक्टर बनने का सपना देखा था। चूड़ियाँ, साड़ी की सिलवटें, गहनों की चमक, माँग में सिंदूर ये सब किसी और की ज़िन्दगी का हिस्सा हो सकते थे, उसकी नहीं। उसने तो खुद को हमेशा एक सफ़ेद कोट में देखा था, बीमारों का इलाज करते हुए, मेडिकल सिस्टम में बदलाव लाते हुए। यह सपना यूं ही नहीं उगा था उसके भीतर। एक वक़्त था जब उसकी माँ को अचानक तेज़ बुखार, उल्टी और बेहोशी की हालत में राजेश वर्मा स्थानीय सरकारी अस्पताल लेकर दौड़े थे। वहाँ किसी ने ढंग से सुना नहीं, कोई खास दवाई तक नसीब नहीं हुई। माँ की हालत बिगड़ती चली गई और राजेश का सीना ग्लानि से जलता रहा। वह उसी ऑटो को देख रहे थे जिसे कुछ दिन पहले उन्होंने एक घायल डॉक्टर को घर छोड़ने के लिए इस्तेमाल किया था डॉ. प्रसाद। वह घटना किसी फ़िल्म की तरह तेज़ी से उनके दिमाग में घूमी। एक दिन राजेश अपने ऑटो से लौट रहे थे जब उन्होंने एक डॉक्टर को देखा जो बेबस खड़े थे सामने एक जवान लड़का किसी भी क्षण उनपे हमला कर सकता था,भीड़ जुटी थी, लोग भला-बुरा कह रहे थे। किसी ने डॉक्टर प्रसाद को धमकाया, “तुम लोग तो कसाई हो, मेरे बाप को मार दिया! ये सब धंधा है, इंसानियत नहीं!” डॉक्टर की आँखों में उस वक्त लाचारी थी। राजेश को कुछ समझ नहीं आया, बस दिल में हूक सी उठी और उन्होंने ऑटो तेज़ी से आगे बढ़ाकर डॉक्टर को खींचकर अंदर बिठाया और गाड़ी को गलियों से होते हुए सीधे उनके घर पहुंचाया। डॉक्टर प्रसाद ने पीछे मुड़कर देखा तक नहीं था, लेकिन ऑटो में बैठते ही उन्होंने राजेश की बातों से एक भरोसा महसूस किया। “साहब, टेंशन मत लीजिये. अगर आप सही हैं तो फिर आप सही हैं ... कुछ ग़लत नहीं होगा,” राजेश ने रियरव्यू मिरर में देखते हुए कहा था। डॉ. प्रसाद मुस्कुराए थे, पहली बार उस दिन। उन्होंने पूछा था, “जानते हो मैं कौन हूँ?” और फिर वही मुस्कान आज, वर्षों बाद, वही सरकारी अस्पताल के बाहर दोहराई गई थी। राजेश अपनी पत्नी की बिगड़ती हालत के सामने टूट गए थे। वह उस सरकारी अस्पताल के बाहर, आँसुओं से भीगे रुमाल को हाथ में लिए बैठे थे, कि अचानक किसी ने ऑटो के पास आकर पूछा, “भाई, चौक तक छोड़ दोगे?” राजेश ने नजर उठाई और सामने डॉक्टर प्रसाद खड़े थे। वही डॉक्टर, जिनकी जान उन्होंने उस दिन बचाई थी। दोनों की आँखों में वो पुराना दृश्य तैर गया। डॉक्टर प्रसाद ने चश्मा उतारकर कहा, “परेशान लग रहे हो राजेश … टेंशन मत लीजिये. अगर आप सही हैं तो फिर आप सही हैं ... कुछ ग़लत नहीं होगा राजेश की आँखें छलक उठीं। उन्होंने डॉक्टर प्रसाद के पाँव पकड़ लिए। और साथ ही पास खड़ी छोटी सी अंजलि भी आगे बढ़ी और मासूमियत से डॉक्टर के पाँव पकड़कर बोली, “अंकल… माँ ठीक नहीं हैं …डॉक्टर प्रसाद ने उसकी आँखों में कुछ देखा एक मासूम ताकत जो टूटने से मना कर रही थी। उन्होंने बिना पल गँवाए अंजलि को गोद में उठाया और सीधे अस्पताल की इमरजेंसी में ले गए। उस रात, बिना कोई फीस लिए, बिना कोई परिचय पूछे, उन्होंने अंजलि की माँ की जान बचाई थी। वह एक चमत्कार था, एक प्रेरणा, जो किसी किताब से नहीं, जीवन से निकली थी। उसी रात अंजलि ने अपने भीतर एक वादा गढ़ लिया था एक दिन मैं भी डॉक्टर बनूंगी। एक दिन किसी और को यूँ मौत के मुहाने से खींच लाऊंगी। सालों गुजर गए, लेकिन वह संकल्प उसकी आत्मा में समाया रहा। जब भी कोई उस पर सवाल उठाता, उसे माँ की वो रात याद आ जाती, डॉक्टर प्रसाद का शांत चेहरा और वो शब्द “अगर आप सही हैं तो फिर आप सही हैं ... कुछ ग़लत नहीं होगा …जब उसने यह बात अपने पिता और दादी से साझा की, तो माँ की आँखों में आँसू थे, लेकिन पिता का चेहरा सख्त था। “लड़कियों का काम घर संभालना है,” उन्होंने कहा था, “डॉक्टर बनना नहीं।” दादी ने भी कहा, “बिटिया, पढ़ाई ठीक है, पर ये डॉक्टर-डॉक्टर का सपना छोड़ दे। न खाने का वक़्त बचेगा, न जीने का।” पर अंजलि ने हार नहीं मानी। वह सुबह जल्दी उठती, स्कूल जाती, शाम को ट्यूशन पढ़ाती और रात को पढ़ाई करती। किताबों के नीचे दबा उसका चेहरा थका हुआ ज़रूर होता, लेकिन उसकी आँखें हमेशा चमकती रहतीं जैसे उस सफेद कोट की रोशनी में डूबी हुई हों। स्कूल में उसने फिर से टॉप किया, लेकिन पिता अब भी बोले, “ये सब अस्थायी है। डॉक्टर बनना मज़ाक नहीं।” पर यही अस्थायी बातें जब जुनून में बदलती हैं, तो इतिहास रचती हैं। उस दिन जब स्कूल की आख़िरी घंटी बजी, अंजलि ने एक गहरी साँस ली। उसके हाथ में वह प्रमाणपत्र था, जिस पर लिखा था “स्कूल टॉपर।” बाहर निकलते वक़्त स्कूल की खिड़कियों पर गिरती धूप उसे और चमकदार लग रही थी। उसकी आँखों में सपना था, और मन में संतोष कि उसने एक लड़ाई तो जीत ली है। लेकिन घर पहुँचते ही उस संतोष का रंग फीका पड़ने लगा। पिता ने प्रमाणपत्र को देखा, एक बार मुस्कराए भी, लेकिन अगले ही पल चुपचाप मेज़ पर रख दिया। दादी ने तो साफ़ कहा, “बेटा, ये सब तो स्कूल की बातें हैं। असल ज़िंदगी का इलाज ये किताबें नहीं करतीं। ज़्यादा उड़ मत।” अंजलि का मन किया कहे “उड़ने की इजाज़त तो कभी दी ही नहीं, अब उड़ने की कोशिश करूं तो भी रोक रहे हो?” पर उसने कुछ नहीं कहा। वो जानती थी कि उसकी जंग बहस से नहीं, अपने कर्मों से जीती जाएगी। उस रात माँ के पास बैठकर वह चुपचाप किताबें पलट रही थी। माँ ने धीरे से उसका सिर सहलाया और पूछा, “तेरे मन में क्या चल रहा है?” अंजलि ने सिर उठाया और कहा, “माँ, डॉक्टर बनना है। ये सपना मैंने किसी फैशन की तरह नहीं देखा। डॉक्टर प्रसाद को देखा था ना? जब उन्होंने आपकी जान बचाई थी… जिस तरह से उन्होंने पापा के आँसू पोंछे थे… उसी दिन मैंने तय कर लिया था। माँ, मैं भी किसी की जान बचाना चाहती हूँ।” माँ की आँखें भर आईं। वो कुछ बोल नहीं सकीं, लेकिन हाथ थाम लिया। अगले दिन माँ ने पापा से बात की। धीमे स्वर में, लेकिन विश्वास के साथ। “अंजलि का सपना छोटा नहीं है। ज़रा सोचिए, कोई हमारे जैसे घर से, बिना रिश्वत, बिना सिफ़ारिश, सिर्फ़ मेहनत के दम पर डॉक्टर बन जाए… क्या आपको गर्व नहीं होगा?” पिता ने निगाहें फेर लीं। “गर्व से पेट नहीं भरता। और लड़की है… तब तक शादी की उम्र निकल गई तो कौन करेगा उससे शादी? अच्छा लड़का मिला है… नज़रअंदाज़ मत करो। हम जैसे घर की बेटियाँ ज़्यादा सपने नहीं देखा करतीं। माँ चुप हो गईं, लेकिन अंजलि के भीतर एक चिंगारी जल चुकी थी। वो सुबह चार बजे उठकर पढ़ाई करने लगी। घर के कामों में हाथ बँटाती, फिर स्कूल, फिर ट्यूशन। रात को नींद और थकान से भरे बदन के साथ वो फिर से किताबों पर झुक जाती तो माँ उसे खाने के लिए उठातीं, तो वह हँसते हुए कहती, “अब छोड़ो माँ, खाने से ज़्यादा ज़रूरी है मेरा सपना।”धीरे-धीरे उसका संघर्ष नज़रों में आने लगा। माँ का भरोसा और गहरा हुआ। स्कूल की प्रिंसिपल मैम ने एक दिन उसके पापा को बुलाया। उनके चेहरे पर संजीदगी थी, शब्दों में दृढ़ता। “राजेश जी, आपकी बेटी में वो आग है जो बहुत कम बच्चों में होती है। उसे एक मौका दीजिए। डॉक्टर बनकर वो सिर्फ़ आपकी नहीं, इस देश की ज़रूरत बन सकती है।” पापा चुप हो गए। दादी ने घर आकर फिर से वही बात दोहराई, “इन सब बातों में पैसा फँसेगा, और लड़की की शादी की उम्र निकल जाएगी।” लेकिन इस बार पापा ने कुछ नहीं कहा। और अंजलि ने इसी खामोशी को हरी झंडी मान लिया। उसने मेडिकल एंट्रेंस की तैयारी शुरू कर दी।दिन-रात एक हो गए। दोस्तों की शादियों के कार्ड आने लगे, मोहल्ले की लड़कियाँ साड़ियों और जेवरों की बातें करने लगीं, और अंजलि अपने नोट्स और NCERT की किताबों में खोई रही। एग्ज़ाम के दिन सुबह माँ ने माथे पर तिलक लगाया, और आँखों में कुछ कहे बिना आशीर्वाद दे दिया। परीक्षा देने के बाद बाहर निकलते समय उसकी उंगलियाँ काँप रही थीं, पर दिल के किसी कोने में सुकून था जो था, वो दे आई।”जब रिज़ल्ट आया, अंजलि ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला नहीं पाई। बस, आँखें बंद करके सिर झुका लिया और माँ के गले लगकर फफक पड़ी। वो टॉपर्स में थी। सरकारी मेडिकल कॉलेज का एडमिशन कन्फर्म था। पर अब सबसे बड़ा प्रश्न था फीस। घर में फिर बहस छिड़ी। “इतनी मोटी फीस कहाँ से आएगी?” पापा ने गुस्से से कहा, “क्या मैं बैंक लूट लाऊँ?” अंजलि ने आँसुओं से नहीं, तर्कों से जवाब दिया, “पापा, स्कॉलरशिप्स हैं। एनजीओ हैं। कोशिश करें तो रास्ते निकलेंगे।” पापा ने कटाक्ष किया, “तू करती रह कोशिश, मैं शादी की बात करता हूँ। कोई करेगा भी तो अब तेरी उम्र पूछकर मुँह मोड़ लेगा।” उस रात अंजलि चुप रही। लेकिन अगली सुबह वह लोन ऑफिस गई, स्कॉलरशिप्स के लिए ऑनलाइन आवेदन किया। हर वो दरवाज़ा खटखटाया जिसे कोई और उसके जैसे हालात में छूने की भी हिम्मत नहीं करता। कई बार रिजेक्शन मिला। कई बार ये सुनने को मिला “बहुत ज़्यादा मेधावी नहीं हो तुम, बहुत ज़्यादा गरीब भी नहीं।” पर आख़िरकार एक एनजीओ ने उसके जुनून को समझा और आगे पढ़ाई के लिये स्कालरशिप का इंतेज़ाम हो गया आखिरखार उसने मेडिकल कॉलेज में कदम रखा जहाँ उसकी असली परीक्षा शुरू हुई।