KAMRA NO. 217

कमरा नंबर 217 (दिल्ली यूनिवर्सिटी का बालिका छात्रावास, तीसरी मंज़िल)
छात्रावास की दीवारें पिली पड़ चुकी थीं, ऐसा लग रहा था मानो पीलिया हो गया है । खिड़कियों के पर्दों का रंग धुप खा चुकी थीं तीसरी मंज़िल का आख़िरी गलियारा, जहाँ कूलर अक्सर खरखराता था और गलियारे में लड़कियाँ बातें करती थीं लेकिन वो आवाज़ें सिर्फ़ शोर नहीं थीं, वो हर शाम की अपनी एक अलग धुन थीं। जैसे हर लड़की की चप्पल अपने-अपने सुर में चलती थी कोई तेज़-तेज़ थप-थप करती, जैसे जल्दी में हो, कोई धीरे-धीरे घिसटती हुई, जैसे मन कहीं और अटका हो। किसी के पास चाय का कप होता, किसी के खुले बाल और बिखरे किस्से। दोपहर की क्लास खत्म होते ही ये गलियारा किसी पुराने रेडियो की तरह बजने लगता जहाँ हर कमरे से किसी न किसी का हँसता हुआ संवाद रिसता रहता।
हवा में एक परिचित सी खुशबू थी बासी पराठों, पुराने परफ्यूम, और पसीने से भीगी कॉपियों की। बीच-बीच में किसी लड़की की ज़ोर से हँसी, या फिर बगल वाले कमरे से आती कॉल पर की गई फुसफुसाहटें, उस गलियारे को सिर्फ़ एक रास्ता नहीं रहने देती थीं वो एक दुनिया थी, जहाँ हर आवाज़ किसी कहानी की शुरुआत लगती थी।
इसी गलियारे के अंत में था — कमरा नंबर 217।
उसी कमरे में पहली बार आमना-सामना हुआ समीरा और गुनजन का। समीरा भोपाल से आई थी। वह शांत स्वभाव की, हमेशा पुस्तकों में डूबी रहने वाली लड़की थी। जिसे देखकर अधिकतर लोग कहते, “बहुत बोरिंग है, एकदम चुप रहने वाली।” उसकी आँखों में जैसे कई अधूरे प्रश्न झलकते थे। उसे छात्रवृत्ति मिली थी, इसलिए उत्तरदायित्व भी कुछ अधिक थे।
दूसरी ओर थी गुनजन पटना की, चुलबुली, जीवन से भरपूर। वह हर बात पर हँसती, ज़ोर से बोलती और हर कमरे में बिना खटखटाए प्रवेश कर लेती। अपने दिल की बात को कभी दिल में नहीं रखती।
आखिर वो दिन भी आया जब दोनों की पहली बार एक दुसरे से बात हुई वो भी एक मोबाइल चार्जर को लेकर, गुंजन ने बड़े रुआब से कहा मिस भोपाली! यह मेरा चार्जर है! तुमने बिना पूछे लगा लिया? चलो, इसका किराया दो।”
समीरा ने शांत स्वर में उत्तर दिया, “जब आपने यहाँ रखा था, तब मैं नहीं थी। अगर आप होतीं, तो मैं ज़रूर पूछती। कितना होगा इसका किराया?”
गुनजन ने उसे दो पल देखा, फिर मुस्कराकर बोली, “अरे पगली! किराया कौन देता है छात्रावास के कमरे में? थोड़ी अजीब है तू पर ठीक है चल तू भी क्या याद करेगी की किस दिलदार से पला पड़ा है रख ले ये चार्जर तू वैसे भी मेरे पास और भी बहुत है फिर थोड़ा फुसफुसा के बोलती है जो मैंने दूसरों के कमरों से उठाये हैं नाम नहीं बताया तूने अपना
“समीरा,” उसने धीरे से कहा।
“मैं गुनजन। और अब ये चार्जर साझा किया जाएगा, समझी?” समीरा ने सिर हिला दिया, पर मन ही मन सोचने लगी यह लड़की कितनी अजीब है। अभी तो कह रही थी कि रख ले, अब कह रही है साझा होगा?
दिन बीतने लगे। गुनजन को समीरा की चुप्पी परेशान करती थी। वह अक्सर कहती, “क्यों मुँह में दही जमा रखी है? कुछ बोलो… कुछ सुनाओ…”
प्रारंभिक कुछ दिन टकराव में ही बीते। गुनजन को समीरा की चुप्पी चिढ़ाने लगी थी। वह कहती, “तू दिनभर पुस्तकें पढ़ती रहती है! तेरे पास कहने को कुछ होता ही नहीं क्या?” समीरा मुस्कराती, पर उत्तर नहीं देती। उधर समीरा को गुनजन की तेज़ी थका देती थी। हर समय बोलना, हँसना, गाना उससे जैसे कमरे में एक क्षण के लिए भी शांति नहीं मिलती थी।
एक रात छात्रावास की बिजली चली गई और जनरेटर भी काम नहीं कर रहा था। सभी लड़कियाँ बालकनी में एकत्र थीं। कोई गीत गा रही थी, कोई मच्छरों से परेशान थी। ऐसे में गुनजन ने समीरा की ओर देखकर कहा, “तू जो चुप रहती है न, उसके पीछे बहुत खोजबीन की मैंने। जितना समझ आया, तू उन्हीं में से है जो चुपचाप रोते हैं।”
समीरा ने बिना हिचकिचाहट के कहा, “और तू… तू उन लोगों में से है जो ज़ोर-ज़ोर से हँसते हैं… ताकि कोई यह न समझ पाए कि तू भी भीतर से टूटी हुई है।”
उसने यह बात धीरे ही कही थी, पर उस समय की चुप्पी में यह बात हर किसी को सुनाई दी। पूरा गलियारा एक पल को शांत हो गया। हवा भी जैसे थम गई। गुनजन ने कोई उत्तर नहीं दिया, बस सिर झुका लिया। उस रात पहली बार दोनों एक ही बालकनी में, बिना कुछ कहे, साथ बैठीं। शब्दों के बिना भी बहुत कुछ कहा गया।
धीरे-धीरे समीरा ने गुनजन को पुस्तकों से परिचित कराया। 'महाभोज' पढ़ते समय गुनजन ने पूछा, “इसमें जो स्त्री है... वह इतना सहती क्यों है?” समीरा ने मुस्कराते हुए कहा, “क्योंकि उसे कोई गुनजन नहीं मिली।”
गुनजन चुपचाप पुस्तक पढ़ती रही। दूसरी ओर, गुनजन ने समीरा को रंगों से, खुलेपन से, और तस्वीरों की दुनिया से परिचित कराया। “तेरी कोई भी तस्वीर नहीं है। आज के ज़माने में जब तक तुझे कोई देख न ले, तू अस्तित्व में ही नहीं है।”
समीरा ने गुंजन से कहा देख लेना एक दिन तू मेरी तरह पुस्तक पढ़ेगी और मैं तेरी तरह तस्वीरें साझा करूँगी।”
धीरे-धीरे हर शाम समीरा पुस्तकें देती और गुनजन उसकी तस्वीरें खींचती कभी जबरन, कभी हँसते हुए।
फिर एक दिन कॉलेज के नोटिस बोर्ड पे समीरा ने पढ़ा की वाद विवाद प्रतियोगिता के लिए इच्छित छात्राएं अपना अपना नाम लिखवा दे सभी छात्राएं इस प्रतियोगिता को लेकर बहुत उत्साहित थीं समीरा ने अपना लिखवा तो दिया पर जैसे जैसे प्रतियोगिता का दिन पास आता जा रहा था उसके चेहरे पर चिंता की लकीरें गहराती जा रही थी । उसे मंच का डर था अजनबियों के सामने बोलने का डर, असफल होने का डर।
एक दिन गुनजन ने देखा कि वह अभ्यास के नाम पर सिर झुकाए बैठी है, तो पास आकर बोली “इतनी किताबें पढ़ने वाली लड़की एक मंच से डरती है? तू डर को डरा, उसे बता दे कि तू गुनजन की दोस्त है।”
प्रतियोगिता के दिन समीरा का चेहरा पीला पड़ गया था। वह बार-बार अपनी चूड़ियों को खनखनाकर दिल की धड़कनों को शांत करने की कोशिश कर रही थी। गुनजन ने उसका हाथ पकड़ा और उसकी हथेली में अपनी उँगलियाँ कसकर बोली “तू जा… और जो डर खड़ा है न वहाँ, उसे इस अंदाज़ में जवाब दे कि वो दोबारा तुझसे न टकराए।”
मंच पर पहुँचते ही जब लाइट समीरा के चेहरे पर पड़ी, तो कुछ पल के लिए उसकी साँसें अटक गईं। पर फिर जैसे उसके भीतर की किसी अनकही शक्ति ने उसे थामा। शब्द निकले स्पष्ट, दृढ़ और आत्मविश्वासी।
लोगों ने तालियाँ बजाईं। निर्णायकों ने सिर हिलाया। और जब वह मंच से नीचे उतरी, उसके हाथ में विजेता की ट्रॉफी थी। वह ट्रॉफी नहीं थी वह आत्मविश्वास था, जो अब उसकी आँखों में चमक रहा था।
गुनजन भागती हुई आई, समीरा के गाल थामे और बोली “अब तू केवल पुस्तक नहीं है, तू अब एक कहानी है… और वह भी मुख्य पात्र वाली!”
फिर एक रात जब सबलोग हसी मज़ाक कर रहे थे की अचानक हॉस्टल की वार्डन ने आ कर गुंजन को बताया की उसके घर से फ़ोन आया था उसके पापा को हृदयाघात हुआ था। वे गहन चिकित्सा कक्ष में थे। ये सुनते ही गुंजन की सांसें जैसे थम सी गयी वह चुप हो गयी उसकी आँखें नम हो गयी उसने समीरा की ओर देखा। एक ही वाक्य कहा “चल, स्टेशन चलें। इस बार तू बोलेगी, मैं सुनूँगी।”
रात की ट्रेन थी। दोनों चुपचाप बस में बैठीं। समीरा ने न पुस्तक खोली, न मोबाइल देखा। उसका पूरा ध्यान गुनजन की तरफ़ था। वह उसका हाथ थामे थी पूरे रास्ते। जब ट्रेन आई, दोनों खिड़की के पास बैठीं। गुनजन बाहर देखती रही जैसे सबकुछ पीछे छूट रहा हो। कई घंटों बाद उसने धीमे से कहा “कभी-कभी हँसते-हँसते इंसान भूल जाता है कि रोना भी ज़रूरी होता है…”
समीरा ने उसकी हथेली को कसकर पकड़ा और कहा “तेरे पिताजी ठीक हो जाएँगे। लेकिन अगर तू टूटी, तो मुझे कौन हँसाएगा?”
अगली सुबह अस्पताल पहुँचे। गुनजन अंदर गई, समीरा बाहर बैठी रही। घंटों बीते। जब वह बाहर आई, उसके चेहरे पर थोड़ी राहत थी। समीरा के पास आकर बोली “धन्यवाद समीरा… आज तुझसे बिना कहे सब कह दिया।”
कुछ सप्ताह बाद कमरा नंबर 217 सिमटने लगा। अलमारियाँ खाली हो गईं, दीवारों से पोस्टर हट चुके थे। खिड़की खुली थी और हवा वैसी ही चल रही थी, जैसी पहले दिन थी। गुनजन ने दीवार पर उँगली से लिखा 217: मौन नहीं, यादें भरी हुई।
जब नीचे उतर रही थीं, समीरा ने मुड़कर खिड़की को देखा। वह अब भी खुली थी। गुनजन ने समीरा का हाथ थामा और मुस्कराकर कहा “अगली ज़िंदगी में फिर मिलेंगे, ठीक?”
समीरा ने उसकी हथेली को धीरे से दबाया जैसे कह रही हो, “हाँ।”
हम सबकी पढाई महज़ कॉलेज के पाठ्यक्रम से पूरी नहीं होती बल्कि उन् लेक्चर रूम और छत्रावास के कमरों की दीवारों से पूरी होती है जहां खेल खेल में हसी मज़ाक में कुछ अजीबों गरीब चित्रकारी तो कुछ नाम लिख दिए जाते हैं और उन्हीं कमरों में एक दुसरे के साथ गुज़ारे कुछ पल आपकी ज़िन्दगी बन जाते हैं और कुछ कभी न जुदा होने वाले दोस्त उस कमरा नंबर 217 की खिड़की आज भी खुली है कुछ नए छात्राओं और कुछ नई दोस्ती के लिए … क्योंकि कुछ रिश्तें ज़िन्दगी के साथ साथ चलते हैं फिर चाहे इंसान कितनी दूर ही क्यों न चले जाए
Back to Home
Like
Share