BIN CHHUYE LAST PART

BIN CHHUYE LAST PART
सागर कुछ देर तक चुप बैठा रहा। कमरे में हल्की खामोशी थी। बाहर से आती हुई पंछियों की आवाज़ भी अब ठहर गई थी, जैसे हवा भी रुककर उसकी कहानी सुनना चाहती हो। शालू ने उसकी आंखों में झाँका… उसकी पलकें बोझिल हो गई थीं, जैसे किसी पुराने ज़ख्म के धागे फिर से खिंचने लगे हों। "थी एक लड़की…" सागर ने धीमे-धीमे कहना शुरू किया। "नाम था रानी… और सच कहूं, तो उसने ही मुझे ये सिखाया था कि मोहब्बत का मतलब क्या होता है।" "हम कॉलेज में मिले थे। वो मेरे साथ की नहीं थी एक साल जूनियर थी। पहली बार जब देखा था उसे, उसकी आंखों में कुछ था… जैसे किसी छोटे बच्चे की तरह सवाल पूछती थीं वो आंखें… और मुझे हर बार लगता था कि मैं उन्हीं सवालों का जवाब हूं।" शालू चुपचाप सुन रही थी। "धीरे-धीरे बात शुरू हुई। लाइब्रेरी में, कैंटीन में, क्लास के बाहर, होली के रंगों में… और फिर बारिश की एक शाम… जब हम दोनों भीग रहे थे, और उसने मेरे हाथों को थाम कर कहा था ‘कभी छोड़ के तो नहीं जाओगे ना?’ उस दिन समझा था कि मेरी जिंदगी का सबसे कीमती वादा मैंने किया है हां, मैंने कहा था कभी नहीं छोड़ूंगा।" सागर की आंखें अब सच में नम हो गई थीं। वो मुस्कुराया, जैसे खुद की बेबसी पर हँस रहा हो। “पर ये दुनिया… और ये जाति-पाति, अमीरी-गरीबी का जाल… रानी ओबीसी जाति से थी, और मैं ब्राह्मण। मेरे पापा का कलेक्टर ऑफिस में दबदबा था, और उनका एक ही सपना था अपनी जात और रुतबे के अनुसार बेटे की शादी।" " एक सीनियर सेकेंडरी स्कूल में अध्यापक थे रानी के पिता जी. काम के प्रति इमानदार, बड़े सज्जन किस्मत के नेक दिल इंसान थे...मगर हालत के हाथो मजबूर एक पिता की तरह टूटते हुए उन्होने मुझसे कहा था, "बेटा मुझे अच्छे से पता है कि तुम मेरी बेटी को बहुत खुश रखोगे, बहुत कुछ बताया है रानी ने तुम्हारे बारे में लेकिन जिस समाज में हम रह रहे हैं, वहां इस रिश्ते की उम्र बहुत छोटी होगी।’ " मैंने तय किया कि इस समाज को, खोखले विचारों वाले लोगों को और प्रदुषित सोच के मालिकों को छोड़कर कहीं दूर जाके एक नई तारीख से अपनी दुनिया बसाएंगे शालू अब तल्लीन थी। उसकी आंखों में कोई जजमेंट नहीं था…अपनापन था। "हमने तारीख तय की। दो दिन बाद रानी को लेकर निकलना था। मैं अपने कपड़े, जरूरी चीज़ें बैग में पैक कर रहा था… तभी मेरी मां कमरे में आईं। उनका चेहरा थका हुआ था… मगर प्यार से भरा। उन्होंने कहा 'बेटा, शादी की बात पक्की हो गई है। लड़की वाले तुझे पसंद कर चुके हैं। तेरे पापा बहुत खुश हैं।’ " "मैंने मां की आंखों में देखा… वो भी जानती थीं कि मेरा दिल कहीं और है। उन्होंने धीरे से कहा ‘रानी अच्छी है… पर बेटा, हम ये बोझ नहीं उठा सकते। तुम्हारे पापा के लिए ये समाजिक बदनामी होगी। क्या तू चाहता है कि हम लोग तुझसे हमेशा के लिए टूट जाएं?’ ” “मैं कुछ नहीं बोल पाया। बस मां को देखता रहा… सोचता रहा क्या एक लड़की को पाने की कीमत इतनी बड़ी होती है? और अगर मैं रानी के साथ भाग जाऊं, तो ये परिवार, जिसने मुझे बनाया, मुझे पाला, उनकी बर्बादी का कारण बनूंगा।” सागर की आवाज़ अब भारी हो चली थी। “अगले दिन रानी से मिलने गया। हम हमेशा की तरह बस स्टॉप के पीछे वाले पुराने पार्क में मिले। उसके हाथ में एक डायरी थी। मैं समझा कि वो साथ चलने के लिए तैयार है। लेकिन उसकी आंखें रोई हुई थीं।” “मैंने पूछा 'बैग कहां है रानी? चल रहे हैं ना?'” " उसकी आँखें मेरी आँखों से हट ही नहीं रही थीं... जैसे जी भरकर मुझे देख लेना चाहती हो... शायद इस एक पल को ज़िन्दगी भर के लिए अपनी यादों में सँजो लेना चाहती थी वो। अचानक उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। फिर खुद को सँभालकर चुपचाप बैठे रहने की उसकी कोशिश नाकाम हो गई... और वो फूट-फूटकर रोने लगी। उसका गला रुँध गया था, शब्द उसकी जुबान तक आते-आते टूटने लगे थे। वो बहुत कुछ कहना चाहती थी... शायद यही कि — "तुम्हारे बिना अब जीना मुमकिन नहीं होगा मेरे लिए…" सागर… तुम्हारे साथ जाने का मतलब होगा एक बाप का सीना चीर देना… एक मां की ममता को घूंट-घूंट कर मारना… मैं नहीं कर सकती ये।’ ” “उसने डायरी मुझे दी बोली, इसमें उसके पापा की लिखी एक कविता है। मैं पढ़ने लगा… हर शब्द… मेरे सीने पर हथौड़े की तरह गिर रहा था…” " *पहली बार जब तू गोद में आई थी एक बाप का जन्म हुआ उस रात को.. लक्ष्मी, सरस्वती का आगमन हुआ था सबसे बड़ी दौलत मिली थी उस रात को.... तेरे किलकारी से झूम उठा आंगन गूंज उठा था उस रात को.. गर्व से एक मां खूब मुस्कुराइ दामन महक उठा था उस रात को.. अधूरे से पूरे हो गये हम जीवन धन्य हुआ था उस रात को.. अब तू बड़ी हो गई तेरी शहनाई बजेगी एक बाप ही समझ सकता है उस एहसास को.. तू चौखट पार करेगी मायका का छोड़ कर चली जाएगी अपने बाप को.. । रीति है, रिवाज है, पगड़ी है, परंपरा है बेटी मेहमान नहीं होती बेटियां कैसे कहूं इस समाज को.. मेरी गुड़िया.मेरी परी.मेरा खून मेरा जुनून है तू कलेजे का टुकड़ा है तू याद रखना इस बात को... लव यू मेरी बिटिया रानी..* ”उस कविता को सुनकर मन के भाव बदलने लगे, मुझे एहसास होने लगा कि कहीं अपनी खुशी के लिए मैं किसी और की खुशी तो नहीं छीन सकता? हां चल देगी वो मेरे साथ जहां ले जाऊंगा...ना सवाल पूछेगी ना जवाब मांगेगी कभी भी...पर क्या ये ठीक होगा? इतने में रानी ने धीमे से स्वर में मुझे बोला कि" सागर मुझे नहीं लगता कि हमें भी भावनाओं की कोई फिक्र करनी चाहिए, प्यार किया है हमने तो हमारा प्यार पूरा होना चाहिए बाकी किसी के प्यार, किसी जीवन से हमें क्या लेना देना, जिस बाप ने पला पोसा बड़ा किया, रहेगा तो उसी घी पिटे समाज में, ताने ही तो मिलेंगे उसे..जो आंसू आज हमारी आंखों से गिर रहे हैं कल उसकी आंखों से गिरेंगे पर हम तो भाग चलते हैं... “वो मुझे विकल्प नहीं दे रही थी… वो मुझे आज़ादी दे रही थी… सच का आइना दिखा रही थी।" "मैंने रानी का हाथ थामा… हमने तय किया हम दोस्त रहेंगे। हमेशा के लिए। अगर किसी दिन कोई हमें समझने वाला साथी मिला, तो हम मिलेंगे। नहीं तो बस, दुआ देंगे एक-दूसरे को।" “आखिरी बार उसने मुझे गले लगाया… और फिर एक झटके से खुद को अलग किया… और बिना पीछे देखे चली गई…” सागर की आवाज अब बहुत धीमी हो चुकी थी। जैसे खुद से लड़ते हुए ये कहानी सुना रहा हो। “आज जब तुमने मुझसे पूछा कि किसी और के लिए कभी कुछ महसूस किया था… तो झूठ नहीं बोल सका… रानी थी… है… और शायद रहेगी…” शालू की आंखें नम हो गईं। उसने सागर की तरफ देखा उस सच्चाई और ईमानदारी के लिए जो अबतक उसने किसी से नहीं बांटी थी। उसका मन कांप गया। क्योंकि जिस इंसान को वो कल तक खत्म करने का मन बना चुकी थी, आज वो खुद अपने पुराने घाव खोलकर उसकी गोद में रख रहा था बिना किसी उम्मीद के। रात गहराती जा रही थी। कमरे में सन्नाटा था, लेकिन शालू के भीतर तूफान मचा हुआ था। सागर की बातें अब भी उसके कानों में गूंज रही थीं रानी की डायरी, सागर की बेबसी, एक बेटे की उलझन, एक प्रेमी की हार, और एक इंसान की सच्चाई। उसने बिस्तर पर आंखें बंद की, लेकिन नींद दूर थी। रोहित की बातें, उसकी धमकियाँ, उसका गुस्सा सब याद आ रहा था। लेकिन अब शालू के मन में वो डर नहीं था जो पहले था। अब उसके भीतर एक ठहराव, एक समझ, और एक हिम्मत थी। सुबह हो चुकी थी। खिड़की से आती रोशनी ने जैसे एक नई उम्मीद का संकेत दिया। शालू धीरे से उठी, और पास रखे फोन को देखा। रोहित का मैसेज था "क्या सोच लिया है तूने? जवाब दो!" शालू ने गहरी साँस ली। फिर धीरे-धीरे टाइप किया "रोहित, मैंने तुझे दिल से चाहा था। आज भी करती हूं। लेकिन मोहब्बत सिर्फ पाना नहीं होता… और ना ही ये ज़िद की किसी को मिटा कर पाया जाए।" "जिस इंसान को मैं कल तक नहीं जानती थी, आज उसने मुझे वो इज्ज़त, वो सच्चाई दी है, जो शायद तू भी कभी नहीं दे पाया।" "सागर एक अच्छा लड़का है… और मैं अब उसे सिर्फ एक मजबूरी की तरह नहीं देखती।" "मैं किसी की बीवी हूं, और इस रिश्ते को अब सिर्फ निभाना नहीं… जीना चाहती हूं।" "तू मेरी मोहब्बत था, लेकिन अब मेरा फ़र्ज़ है… और मोहब्बत से ऊपर फ़र्ज़ होता है।" "मेरी खुशियों में शामिल हो जाओ, तो शायद हमारी यादें भी पाक हो जाएंगी। वरना ये मोहब्बत भी एक गुनाह बन जाएगी।" "आज मेरी सुहागरात है रोहित… और मैं पहली बार खुद को पूरी तरह अपनी होने वाली जिंदगी के नाम करने जा रही हूं।" "ख़्याल रखना अपना… bye..।" उसने मैसेज भेजा और फोन को एक ओर रखते हुए दर्पण के सामने आकर खडी हो गई आज एक अलग आत्मविश्वास और सुकून से दमक रहा था उसका चेहरा.. । आज उसकी आंखों में कोई डर नहीं था, कोई पछतावा नहीं था। वो तैयार होने लगी। साड़ी की सिलवटों को एक-एक करके ठीक करती रही। माथे पर सिंदूर का रंग उसने खुद लगाया… और एक छोटी सी मुस्कान उसके होठों पर आ गई। हाथों में दूध लेकर सागर दरवाजे के बाहर ही खड़ा था....वो धीरे से दरवाजा खटखटता है "आ सकता हूं?" "हाँ," शालू की आवाज़ धीमी पर स्थिर थी। सागर ने दरवाज़ा खोला… और जैसे ही उसने शालू को देखा एक क्षण के लिए उसकी सांसें रुक गईं। शालू… उसी कमरे में… उसी बिस्तर के सामने खड़ी थी… पर अब वो 'पराई' नहीं लग रही थी। वो 'अपनी' लग रही थी। "क्या मैं कुछ कहूं?" शालू ने आगे बढ़ते हुए पूछा। सागर थोड़ा घबराया, लेकिन बोला "हां… बिलकुल… आज तुम जो कहो… वो ही सच होगा मेरे लिए।" शालू ने उसका हाथ पकड़ा। उसकी आँखों में देखा।"कल रात तुमने मुझसे कुछ नहीं माँगा… सिवाय मेरे मन की इजाजत के। और आज… मैं तुम्हें सब कुछ देना चाहती हूं अपने सवाल, अपने जवाब, अपने सपने… और खुद को।" सागर चौंका… पर कुछ नहीं बोला। "सुनो सागर," शालू ने कहा… "मैंने भी किसी से मोहब्बत की थी… रोहित नाम था उसका। बहुत गहरा रिश्ता था। पर जब मेरी शादी तुमसे हुई… मैं डर गई थी। मुझे लगा था, मैं कभी किसी और को स्वीकार नहीं कर पाऊंगी।" "मैंने एक वक़्त तुम्हें तकलीफ देने का मन भी बना लिया था।" उसकी आवाज़ भर आई थी। "पर अब मुझे एहसास हुआ है… इंसान की अच्छाई उसे सबसे खूबसूरत बनाती है। और तुम… बेहद खूबसूरत हो सागर।" सागर की आँखें नम थीं… लेकिन चेहरे पर सुकून था। "मैं आज तुमसे मोहब्बत का इज़हार नहीं कर रही… मैं एक रिश्ता अपना रही हूं… जो प्यार से भी गहरा है विश्वास।" "क्या तुम… अब भी मुझे वैसे ही अपनाओगे, जैसे कल अपनाया था?" सागर ने उसका चेहरा अपने हाथों में लिया… बहुत ही हल्के से। "जब से तुमने पहली बार मुझे ‘सुनो’ कहकर पुकारा… तभी से तुम मेरी हो चुकी थी। आज तुमने अपने मन से जो कहा… वो मेरी सुहाग की असली शुरुआत है।" शालू ने हँसते हुए कहा "और दूध लाए हो…?" सागर ने मुस्कुरा कर कप सामने किया "बिलकुल… और अब बिना कोई बहाना, इसे पीना भी पड़ेगा…!" शालू ने कप लिया… और दोनों एक दूसरे को देखते हुए धीरे-धीरे बिस्तर की ओर बढ़े। कमरे की लाइट अब भी धीमी थी… हवा में गुलाब की खुशबू घुल रही थी। अब यह कोई ‘परंपरा’ नहीं थी यह दो जख़्मी दिलों की सहमति से जुड़ा रिश्ता था… जिसमें न कोई डर था, न ग़लतफहमी… बस एक भरोसा था। और उसी भरोसे के साथ… उनकी असली सुहागरात शुरू हुई जहां कोई मजबूरी नहीं, सिर्फ मोहब्बत थी। (निष्कर्षात्मक टिप्पणी): 1. सम्मान की नींव पर खड़ा रिश्ता सागर और शालू का संबंध इस बात का प्रतीक है कि बिना छुए भी एक रिश्ता गहराई पा सकता है, अगर उसमें विश्वास, धैर्य और सच्चाई हो। सागर का सम्मानपूर्ण व्यवहार ही शालू को उसकी ओर खींच लाया — बिना दबाव, बिना अधिकार जताए। 2. प्यार से ऊपर फर्ज़ और आत्मबोध शालू ने अपने अतीत को स्वीकार किया, लेकिन उसमें अटक कर नहीं रही। उसने यह पहचाना कि प्रेम, जब जिद या हिंसा में बदल जाए, तो वह प्रेम नहीं रहता। और जब किसी ने बिना मांगे सब कुछ दिया हो, तो वहीं रिश्ता जीने लायक होता है। 3. बीते हुए रिश्तों का मान, पर वर्तमान का सम्मान कहानी यह नहीं कहती कि अतीत को मिटा दो, बल्कि यह सिखाती है कि अतीत को इज़्ज़त देकर, वर्तमान में अपनी सच्चाई को पूरी गरिमा से जीना ज़रूरी है। रोहित उसकी मोहब्बत था, लेकिन सागर उसका फ़र्ज़ और अब उसका चुना हुआ भरोसा है। ❓ Three Thought-Provoking Questions (सोचने योग्य तीन प्रश्न): 1. क्या किसी रिश्ते की शुरुआत, सच्चाई और धैर्य से हो, तो क्या वो बीते हुए प्रेम की यादों को भी पीछे छोड़ सकता है? 2. अगर रोहित ने मोहब्बत को समझा होता, तो क्या वो उसे पाना छोड़ कर भी उसे जीत सकता था? 3. क्या हर सुहागरात एक शारीरिक शुरुआत होनी चाहिए या क्या असली सुहागरात वो होती है जहां दो मन एक-दूसरे को पहली बार समझते हैं?