SAYA PART 4

SAYA PART 4
चारों की साँसों की रफ़्तार एक जैसी थी, सबकी निगाहें और टोर्च की रौशनी उसी बॉक्स पर जमी हुई थी। अमावस की रात जैसा अँधेरा और भी गहरा होता जा रहा था । ये सब मिलकर एक ऐसे दृश्य को जन्म दे रहे थे, जहाँ समय भी रुका हुआ प्रतीत हो रहा था।कोई भी उस बॉक्स को छूना नहीं चाहता था, लेकिन कोई भी उसकी ओर से नज़रें हटा भी नहीं पा रहा था। नेहा अब तक चुप थी। वो अपनी जगह बैठी थी, आंखें बंद किए।वो अंदर से कुछ महसूस कर रही थी, कोई स्मृति, कोई दबा हुआ दृश्य जो धीरे-धीरे उसके भीतर खुल रहा था। वो फर्श पर बैठे-बैठे, अपनी हथेलियों को टेबल की कड़ी लकड़ी पर टिकाए, अपने ही दिल की धड़कन गिन रही थी। "तुम ठीक हो?" कियान ने धीरे से पूछा पर नेहा ने कोई जवाब नहीं दिया।तृषा ने फिर से वो कागज़ उठाया जो बॉक्स के नीचे से गिरा था। उसके अक्षर अब भी वैसी ही स्याही में चमक रहे थे स्याही? नहीं, वो स्याही नही, वो तो शायद खून था। और खून से लिखा गया वो नोट”उसे मत जगाओ... वो जानती है, कब तुम उसे देखते हो।" ईशान ने इस बार कोई तर्क नहीं दिया। वो कुछ गिन रहा था शायद इन घटनाओं के भीतर के तार, उनके क्रम, उनके संकेत।उसने धीरे से कहा"इस बॉक्स पर एस.एच. लिखा है,क्या ये किसी नाम का संक्षेप है?" "शायद..." तृषा ने कहा, "या कोई वस्तु… 'स्पिरिट होल्डर ? 'सोल हाउस'?" "या शायद किसी की पहचान," या नेहा की आवाज़ थी वो ऐसे बोल रही थी जैसे कोई अपने सपने में बोलता है।सबकी नजरें उसकी तरफ गईं।"मेरी दादी की बहन," नेहा ने धीरे से कहा। "एक बार… बहुत साल पहले… मैंने कुछ सुना था।" उसकी आँखें बंद अवस्था में अब अतीत के गलियारे से होते हुए एक बग़ीचे में घूम रही थीं। "जब मैं छोटी थी, आठ या नौ साल की… गर्मियों में हम इसी विला में आए थे। एक बार दादी किसी कमरे में किसी से बात कर रही थीं पर वहाँ कोई नहीं था। वो दरवाज़ा बंद था, लेकिन आवाज़ें बहुत साफ़ थीं। और उन्होंने बार-बार एक नाम दोहराया था 'सरोज'… और फिर एक और शब्द 'हिरणमयी'..." "सरोज हिरणमयी," ईशान ने दोहराया " एस.एच. " “हाँ…” नेहा की साँस रुकी। “शायद वो यहीं थी। इसी विला में। और फिर… उसका ज़िक्र कभी नहीं हुआ।” तृषा ने धीरे से कहा, “शायद इसलिए नहीं हुआ ज़िक्र क्योंकि उन्हें लगता था कि वो जा चुकी है,लेकिन शायद… वो गई नहीं थी।” कियान अब बॉक्स की ओर बढ़ा। “मैं इसे खोलता हूँ।” “रुको,” तृषा बोली। पहले हमें खुद को तैयार करना होगा। जो भी अंदर है वो सिर्फ़ कोई वस्तु नहीं होगी वो कोई चेतना हो सकती है। अधूरी, भूखी, बेहाल फँसी हुई, छटपटाती हुई। उसकी बात सुनके ईशान ने अपनी जगह से खड़े होकर मोबाइल की टॉर्च को सीधा बॉक्स पर टिका दिया।कियान ने बॉक्स के किनारे से धीरे-धीरे उसका ढक्कन ऊपर उठाना शुरू किया।लकड़ी की पुरानी चरमराहट अब फिर से सुनाई दी लेकिन उसके साथ कुछ और भी था।एक धीमी सी सरसराहट जैसे किसी ने बहुत दूर से फुसफुसाया हो। और तभी वो बॉक्स खुल गया थोड़ी सी धुल उडी जिससे एक पल के लिए इनको कुछ भी साफ़ नज़र नहीं आया पर जैसे ही वो धुल छटी उन्होंने पाया की अंदर कुछ भी सामान जैसा नहीं था,कोई गहना नहीं, कोई तस्वीर नहीं ,बस एक सफ़ेद कपड़े में लिपटी छोटी सी हाथ में आने लायक काले उलझे बाल लिये एक रबर की गुड़िया थी जिसकी आँखें गोल चमकदार बिलकुल कंचे की तरह थी और वो उन सबकी तरफ देखे जा रही थी तब नेहा ने एक गहरी साँस ली जैसे किसी अनदेखी जगह से कोई स्मृति उसे खींच रही हो “ये… गुड़िया…,” उसने धीरे से कहा, “ये सरोज की थी।” "तू जानती है?" कियान ने पूछा। "हाँ," नेहा की आवाज़ जैसे अब किसी और की हो गई थी। "क्योंकि मैंने उसे देखा है… एक बार, जब मैं बच्ची थी… वो रात को मेरी खिड़की के पास खड़ी थी बाल खुले, और ये गुड़िया उसके हाथ में थी। मैं चिल्लाई नहीं थी, बस देखती रही।" "फिर?" ईशान ने पूछा। "फिर वो चली गई थी… लेकिन अगली सुबह दादी बहुत गुस्से में थीं। उन्होंने मुझे सब भुला देने को कहा था… कहा था कि मैं सपना देख रही हूँ… लेकिन मैं जानती थी… ये सपना नहीं था।" तृषा अब गुड़िया की ओर झुकी।उसने गुड़िया को उठाने के लिए हाथ बढ़ाया ही था, कि गुड़िया की आँखें अचानक हल्की सी चमकीं ऐसे जैसे कोई भीतर से उन पर नज़र टिकाए था।और फिर... कमरे की एक दीवार से तीन खरोंचें उभरीं बहुत ताज़ा, बहुत गहरी। “वो जाग गई है…” नेहा ने धीरे से कहा। “सरोज हिरणमयी अब इस कमरे में है।”