SAYA PART 6

SAYA PART 6
"ये वो नहीं बोल रहा," नेहा ने ठंडी आवाज़ में कहा, "ये वो बोल रहा है जो दीवारों में कैद है… और अब आज़ाद हो रहा है।" कियान का शरीर अब अकड़ चुका था। उसकी उंगलियाँ खून में डूबी हुईं दीवार पर कुछ लिखने लगीं: "1713 द ब्लैक बैप्टिज़्म।" ये सुनते ही तृषा काँपती हुई पीछे हट गई और नेहा डरावनी आवाज़ में सबसे पुछती है, "जानते हो 1713 का मतलब क्या है? ये कोई पूजा नहीं… ये कोई तंत्र नहीं…ये एक श्राप है।1713… वो साल था जब पहली बार किसी मासूम को जिंदा दीवारों में बंद किया गया था जिससे ना उसकी मौत हुई ना उसकी मुक्ति बस उसके जिस्म से उसकी आत्मा अलग की गई और फिर उस आत्मा को चट्टानों में कैद कर दिया गया ” उसके गले से एक औरत और कई बच्चों की मिली-जुली आवाज़ आती है…“वो चीखती रही…मगर कोई सुनने वाला नहीं था।फिर उन्होंने उसका नाम दिया काली दीक्षा एक ऐसा कर्म… जिसमें न जन्म होता है,न मौत आती है…बस आत्मा…सड़ती है… गलती है… और भूखी रहती है…" नेहा दीवार की ओर देखती है, फिर फुसफुसाती है “उस दिन से लेकर आज तक हर सौ साल में एक नया शरीर चढ़ाया जाता है ताकि वो आत्मा अधूरी न रह जाए ताकि वो जिन्दा रह सके… किसी और के अंदर…” तृषा काँप उठती है, “मतलब… ये सब इसी विला में हुआ था?” “ हाँ यही विला था,यही दीवारें थीं,यही तहख़ाना था,और यही वो कमरा था जहाँ आत्माओं को छुपाया गया, सरोज… अकेली नहीं है, वो तो सिर्फ़ पहला दरवाज़ा है उसके पीछे…कई और आत्माएँ बंधी हैं… अधूरी… भूखी… जिंदा…” एक बार जो बंधा वो कभी वापस नहीं गया।और अब मैं उन सबकी आवाज़ें अपने अंदर सुन रही हूँ वो सब जो अधूरे हैं जो पूरे होंगे तुम्हारे ज़रिए " “ये विला कभी घर नहीं था,” नेहा ने धीरे से कहा, “ये आत्माओं की एक पुरानी शरण है जहाँ आत्माएँ बाँधी जाती थीं ज़िंदा शरीरों में। कियान उसी परंपरा को आगे लेके जाने वाले है। दीवारों ने अब धीरे धीरे पिघलना शुरू कर दिया था और उनमे से खून से लतपथ, सूखे पतले हाथ बहार निकल रहे थे जिनमे नाख़ून की जगह काटें थे।“हमें यहाँ से निकलना होगा,” ईशान ने थरथराते स्वर में कहा।“कोई दरवाज़ा नहीं खुलेगा,” नेहा बोली।“तो रास्ता?” तृषा कांप रही थी जिसके जवाब मे नेहा दीवार की ओर मुड़ी “रास्ता नीचे है जहाँ सब शुरू हुआ और अब ख़त्म होना है।” नेहा की आवाज़ में अब बहुत सारी आवाज़ें निकल कर आ रही थी। कभी किसी बच्चें की कभी पुरुष की कभी औरत की, उसकी आँखें किसी गहरी कालिमा से ढकी जा रही थी । उसने जब दीवार की दरार की ओर इशारा किया, तो वहाँ की ईंटें अपने आप खिसकने लगीं। एक अँधेरा रास्ता दिखाई दिया तंग मिट्टी और खून से सना हुआ।ईशान ने थरथराते स्वर में पूछा, “कहाँ जा रही हो नेहा?” नेहा बिना मुड़े बोली “वहीं जहाँ आत्माएँ अधूरी छोड़ दी गई थीं वहीं जहाँ बलि अधूरी रह गई थी और अब उन्हें पूर्ण करना है…।” उसकी बात सुनके तृषा जैसे ही पीछे हटी तभी दीवारों से कई सारे हाथ जिनमे खून लगा हुआ था बहार निकले और उन्हें जबरन उस सुरंग में जाने के लिए विवश कर दिया । वहां जाते ही सबके सर घूम गए और सबको कई सारी गहरी साँसों की आवाज़ सुनाई दे रही थी पर वो उनकी नहीं किसी और की थी । सुरंग की दीवारों पर किसी ने नाखूनों से खरोंच कर कुछ पुराने अक्षरों को फिर ताज़ा कर दिया था इंसानी कौन से हर शब्द में खून की नमी थी और कुछ शब्दों से खून रिस के नीचे की तरफ जा रहा था कुछ आवाज़ें धीरे धीरे मुखर हो रही थी .सांसें जो वो सुन रहे थे अब वो और गहरी और तीव्र हो रही थी माहौल भयावह हो रहा था इतनी अलग अलग आवाज़ों के बीच कुछ आवाज़ें उन्हें साफ़ तौर पे सुनाई दे रही थी जो कह रही थी “मैं ज़िंदा हूँ… मुझे निकालो… मुझे मत जलाओ… मैं देख रही हूँ…” आतंकित होते हुए ईशान ने टॉर्च की रौशनी घुमाई तो उसे ऐसा लगा की दीवारें किसी इंसानी रूप लेने को संघर्षरत थी कुछ हिस्सा इंसानी हाथों की तो कुछ हिस्सा इंसानी आँखों की शक्ल अख्तियार करने लगा था वहीँ आगे की तरफ टोर्च की रौशनी से उसे सुरंग के आख़िरी छोर पर एक लोहे का दरवाज़ा दिखाई दिया जिसके ऊपर एक जुंग खाई हुई पुराणी ताम्बे की पट्टिका लगी थी जिस पर उभरे अक्षरों में लिखा था की जो इस दरवाजे को खोलेगा उससे सिर्फ दिखाई देगा पर वो कभी बोल नहीं पायेगा। नेहा ने निडर होकर दरवाजे की तरफ हाथ बढ़ाया। दरवाज़ा खुद-ब-खुद चरमराता हुआ खुल गया। भीतर एक विशाल गोलाकार कक्ष था। दीवारें मिट्टी से बनी थीं मगर उन पर मानव चेहरों की आकृतियाँ उभरी हुई थीं जैसे किसी ने चेहरे दीवारों में दबा दिए हों।कक्ष के बीचोंबीच एक काले पत्थर का चबूतरा था। उसके चारों ओर सात खाँचों में रखा गया खून सूख चुका था लेकिन इनके इनके अंदर दाखिल होते ही उन सभी खांचों में से कुछ टपकने लगा था धीरे-धीरे।चबूतरे पर रखी थी वही गुड़िया मगर अब वह पहले जैसी नहीं थी। उसकी काँच की आँखें जल रही थीं सुर्ख जले अगाँरो की शक्ल में और उसकी गर्दन से लटक रही थी लोहे की, पुरानी, मगर चमकती हुई चाबी जिसे देखके नेहा गुड़िया के पास गई, धीरे से उसने गद्य की गर्दन की तरफ हाथ बढ़ाया और गुड़िया की जलती आँखें धीरे से शांत होने लगती हैं जैसे की ये मूक स्वीकृति हो जिसके फलस्वरूप नेहा ने चाबी उठाई और पीछे की दीवार की ओर बढ़ी। वहाँ एक और पत्थर का हिस्सा था मगर वो ज़मीन से कुछ ऊपर उठा हुआ दिखाई दे रहा था “ये उस आत्मा की समाधि है… जो 1713 में पहली बार बाँधी गई थी जिसे न मारा गया, न ज़िंदा छोड़ा गया सिर्फ़ चट्टानों में गाड़ दिया गया… वो अब भी देख रही है… और वो भूखी है।”