SAYA LAST PART

साया अब बोलने लगी थी। उसकी आवाज़ धीमी थी,पर हर अक्षर मानो आत्मा को सीधा काटता चला जा रहा था। “मुझे अब भी डर लगता है,” उसने कहा, “पर मुझे इस डर से नफ़रत है।” “मैं नहीं चाहती कि कोई और बच्चा मेरी तरह दीवारों में सड़े, काँच के भीतर गूंगा हो जाए, और फिर हर सौ साल पर किसी का इंतज़ार करे।”
“तो बताओ,” उसकी नज़रें अब इन सब पे एक-एक पर घूम रही थीं “कौन देगा अपनी बलि?” कमरे की हवा अब भारी नहीं,दमघोंटू हो गई थी। छत से मिट्टी झड़ रही थी,दीवारों पर टपकता पानी अब
लाल होने लगा था। हवेली का हर कोना मानो एक ही सवाल दोहरा रहा था "कौन?" नेहा ने आँखें मूँद लीं।तृषा पीछे हटने लगी,
उसका चेहरा एकदम हल्दी की तरह पीला हो चूका था उससे चला नहीं जा रहा था पैरों में कम्पन था। ईशान ने फटी फटी आँखों से साया की ओर देखा वो इस वक़्त बिलकुल भी मासूम नहीं लग रही थी
वो धीरे-धीरे फिर गुड़िया बनती जा रही थी जैसे शरीर की ज़रूरत पूरी न होने पर वो अपने पुराने स्वरूप में लौट रही हो।काँच की दीवारें चीखने लगी थीं हाँ, वो अब बोल रही थीं उनमें से निकल रही थीं सैकड़ों औरतों की चीखें जो समय-समय पर यहाँ लाई गईं,क़ैद की गईं,और भुला दी गईं सदियो के लिये। तब अपने जबडे भिचते हुए नेहा ने एक कठिन निर्णय लिया। उसने अपनी हथेली ज़मीन पर दबाई वहाँ जहाँ अब भी हल्का-सा गर्म रक्त रिस रहा था। “अगर किसी को जाना ही होगा,”,“तो मैं जाऊँगी…” उसने कहा
“नहीं!!”तृषा चिल्ला उठी।“तू नहीं, नेहा! ये सब तुझसे शुरू नहीं हुआ था!”
“लेकिन ख़त्म मुझे ही करना होगा…” नेहा ने आँखों में आँसू लिए कहा। कियान जो अब सरोज बन चुका था उसने सिर झुकाकर एक पंक्ति कही,जिसे सुनकर सब कुछ थम सा गया। “जिसने दरवाज़ा खोला था…उसे ही उसे बंद करना होगा।” उसने नेहा की ओर हाथ बढ़ाया नेहा आगे बढ़ी धीरे-धीरे…हर कदम के साथ एक सदी का बोझ उसके कंधों पर हावी होता गया।अब वो दोनों उस पेटी के पास खड़े थे, उनको आता देख साया ने आँखें मूँद ली थीं। कमरा भी अब मेन अवस्था मे जाने लगा था और हवेली अब निर्णय की मुद्रा में थी।
वक़्त जैसे वहीँ रुक सा गया था। हवेली अब हवेली नहीं बल्कि एक जीती जागती चेतना में तब्दील हो चुकी थी जिसके अंदर वो साड़ी आत्माएं जो वहां सालों से कैद थी सांस ले रही थी, रो रही थी, चीख रही थीं, और न्याय की प्रतीक्षा कर रही थीं।
नेहा की हथेली अब भी ज़मीन पर थी, जहाँ से गर्मी की एक धीमी तरंग उसके शरीर में समा रही थी लेकिन वो अब पीछे हटने को तैयार नहीं थी। उसकी हथेलियाँ काँप रही थीं, पर उसका मन स्थिर था। आँखें साया की आँखों से टकराईं, और दोनों के बीच जैसे कोई अदृश्य संवाद चल निकला ।
साया,अब हवा में तैरती एक छाया बन चुकी थी। उसकी आँखोँ में इस हवेली का काला इतिहास था, क्रोध था और सबसे अधिक थी पीड़ा जो उसकी अवाज मे झलक रही थी “तुम सोचते हो मैं सिर्फ़ एक आत्मा हूँ?” साया की आवाज़ अब हवेली की हर ईंट से निकल रही थी, “मैं अकेली नहीं हूँ… मैं वो हर औरत हूँ, जिसे चुप कराया गया। मैं वो हर बच्ची हूँ, जिसे बलि के लिए तैयार किया गया। मैं वो हर माँ हूँ, जो अपनी बेटी को आख़िरी बार देख भी नहीं सकी।” और उसी क्षण, हवेली की दीवारें थरथरा उठीं।
तृषा ने नेहा की ओर देख कर कहा “क्या तुम सच में जाना चाहती हो?” नेहा ने धीरे से सिर हिलाया “अगर मैं नहीं गई, तो यह चक्र चलता रहेगा। किसी को तो इस काले इतिहास को बदलना होगा किसी को तो ये क्रम तोडना होगा।
ईशान ने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ा “लेकिन तुम क्यों? हम सब थे इसमें…”
“पर दरवाज़ा मैंने खोला था…” नेहा की आवाज़ अब कांपती नहीं थी, “और बंद भी मुझे ही करना होगा।”
कियान आगे बड़कर साया की ओर देख कर बोलता है “वो समय आ गया है…”
साया की आँखें अब बिलकुल शांत हो चुकी उनमे कोई आक्रोश कोई बदला नहीं था बस थकावट थी उसने बहुत पीड़ा के साथ कहा मुझे बस मुक्ति चाहिए। नेहा ने जब हवेली में कदम रखा था तभी उससे वहां पर एक पुरानी चाबी काले धागे से बंधी हुई मिली थी उस वक़्त उसने उस चाबी को अपने गले में डाल लिया था। उसने वही चाबी अपने गले से निकल कर उस पेटी के ठीक सामने ज़मीन में गाड़ दी अचानक हवेली के केंद्र में राख और धूल से बना एक गोल दरवाज़ा उभर आया। जिसे देखकर कियान बोला “यह दरवाज़ा केवल बलिदान से खुलेगा, जिसके फलस्वरूप नेहा ने आगे बढ़ते हुए पलटकर सबको देखा और थोड़ा भावुक अवस्था में खुद को समभालते हुए बोली “मुझे याद रखना, ये जो कुछ यहाँ हो रहा है इसे प्रकृति का न्याय समझना।”
और वो दरवाज़े के बीच खड़ी हो गई। जैसे ही उसने अपने हाथ फैलाए, चारों ओर से हवेली की आत्माएँ सभी मृत बच्चियाँ, औरतें, माताएँ हवा में तैरती हुई उस में समा गईं जिससे एक तेज़ प्रकाश फैला जो सब कुछ निगलता चला गया और साया की हृदय विदारक चीख़ गूँज उठती है जिसके साथ अब पेटी टूट चुकी थी। ना जाने कब से काली पड़ी हुई दीवारें अब धीरे धीरे श्वेत होने लगी थी और अब तक छत से जो लाल पानी टपक रहा था वो भी अब पारदर्शी हो रहा था। अभी तक हवेली के अंदर जो घुटन थी वो भी अब काम हो रही थी क्योंकि बहार की ताज़ा हवा अब अंदर आ पा रही थी। जहां ईंटों ने दीवार बना थी वो अब टूट गयी थी दरवाजा भी खुल गया था कियान तृषा और ईशान तीनों चुपचाप लड़खड़ाते क़दमों से उस टूटे हुए दरवाज़े की ओर बढे चले जा रहे थे, जो अब पहले की तरह भयावह नहीं लग रहा था। पर उनके भीतर का सन्नाटा बाहर के सन्नाटे से कहीं ज़्यादा भारी था। न जाने कितनी देर तक उन्होंने अपने भीतर गूंजते नामों, चेहरों और चीख़ों को सहा था और अब जब बाहर निकलने का क्षण आया तो हर कदम के साथ नेहा की याद उनकी साँसों के साथ चल रही थी।
उसकी हँसी, उसका डर, उसका संघर्ष… और फिर अंततः उसका मौन बलिदान, ये सब सोचते हुए तृषा की हथेली अब भी गर्म थी जैसे नेहा का हाथ अब भी उसमें हो, ईशान की आँखें बार-बार पीछे देख रही थीं, जैसे मन मानने को तैयार नहीं था कि नेहा अब कभी उनके साथ चलेगी नहीं और कियान… उसकी आत्मा में कहीं एक चुप अपराधबोध ठहरा हुआ था जिसे शब्दों में नहीं कहा जा सकता था।
बाहर निकलते ही हवेली की सीढ़ियाँ वैसी ही जर्जर दिख रही थीं, पर अब उनमें वह कंपन नहीं था जो आत्माओं की उपस्थिति से उठा था। उन्होंने एक बार फ़िर पलटकर देखा उस हवेली की ओर, जो अब पहेले जैसी नहीं रही थी,न उसमें वो डर था, न वो अंधकार… अब वो बस एक पुरानी, खामोश खड़ी इमारत थी, जैसे कोई ऐसा बुज़ुर्ग जिसने बहुत कुछ देखा हो, सहा हो, और अब केवल मौन में साँसें गिन रहा हो। वो अब कोई कब्रगाह नहीं थी वो अब एक गवाह थी उन कहानियों की, जिन्हें कभी किसी ने सुना नहीं था।
नेहा अब उनके साथ नहीं थी इस बात पर यकीन करना बहुत मुश्किल था इन सबके लिए, कियान ने कुछ कहने के लिए मुँह खोला, पर शब्द नहीं निकले...और तभी हवेली की सबसे ऊँची खिड़की से एक हल्की सी रोशनी दिखाई देती है जो नेहा के चेहरे के आकर में कुछ पलों के लिए ढलती है फिर वो रौशनी साया के चेहरे की बनावट में तब्दील होने लगती हैं जैसे वो मुस्कुरा रही हो वही मासूम, शांत, और थकी हुई मुस्कान जैसे किसी को आख़िरकार मुक्त कर दिया गया हो।
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