RAKHI

RAKHI
राखी :एक बहन की यात्रा, जो रक्षाबंधन पर रिश्तों की टूटी डोर फिर से गाँठने चली रक्षाबंधन आने में दो दिन बचे थे। शहर की गलियाँ रंग-बिरंगी राखियों से सज चुकी थीं। मिठाइयों की दुकानों से उड़ती खुशबू हर किसी के भीतर उत्सव की हलचल भर रही थी। लेकिन तन्वी के लिए ये दिन अब सिर्फ एक तारीख थी, जिसके साथ भारी दुख और पीड़ा जुड़ी होती थी।तीन साल से वो मायके नहीं गई थी। माँ, पापा... सबसे रिश्ता तोड़ चुकी थी। एक दिन वो भी था जब हर साल रक्षाबंधन के दिन वो भैया की कलाई पर राखी बाँधने सबसे पहले पहुँचती थी। लेकिन अब, उसकी ज़िंदगी में वो रिश्ता नहीं बचा था।और वजह थी उसकी छोटी बहन, रुचि।रुचि और तन्वी में सिर्फ दो साल का अंतर था। बचपन में दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरी थीं। कभी किताबों के लिए झगड़ा, कभी माँ के आँचल के लिए लड़ाई, लेकिन शाम होते-होते दोनों एक ही रजाई में सिमटी मिलती थीं।जब तन्वी की शादी अद्वैत से हुई एक पढ़ा-लिखा, शांत और बेहद समझदार युवक तो पूरा घर खुश था। शादी के एक साल बाद, रुचि की शादी भी तय हुई। किससे? अद्वैत के छोटे भाई से। दोनों बहनें अब एक ही घर की बहुएं बन चुकी थी। तन्वी बहुत खुश थी ये सोचकर की अब वो फिर से अपना बचपन जी सकेगी। शुरुआत में सब कुछ ठीक था। पर फिर… धीरे-धीरे, रुचि का व्यवहार बदलने लगा। वो अद्वैत के सामने कुछ ज़्यादा सहज होने लगी। छोटी-छोटी बातों में टोकना, हर सलाह में दखल देना, उसकी नज़रों में एक अलग-सी जिज्ञासा झलकने लगी।तन्वी ने कई बार नज़रअंदाज़ किया,शायद शक कर रही हूँ… शायद तन्वी को ही भ्रम हुआ हो। शायद वो कुछ ज़्यादा सोच रही थी… ऐसा उसने खुद से न जाने कितनी बार कहा था। हर बार जब रुचि और अद्वैत की नज़दीकियाँ उसे चुभतीं, वो मन को समझाती "ये मेरा वहम है… आखिर रूचि ऐसा नहीं कर सकती वो तो मेरी छोटी बहिन है। शायद वो ही कुछ ज़्यादा सोच रही है इस बारे में। लेकिन एक दिन तन्वी का सोचा हुआ सच साबित हुआ। उस दिन तन्वी रसोई में दाल बना रही थी खिड़की खुली थी तो पास वाले कमरे से उसे रूचि की आवाज़ सुनाई दी रुचि अपनी सहेली से बातें कर रही थी बेख़बर कि उसकी आवाज़ भीतर तक जा रही है। " काश अद्वैत से पहले मैं मिली होती तो आज मेरी ज़िन्दगी कुछ ओर होती। ये शब्द तन्वी के कानों में पिघले शीशे की तरह उतर गए, उसकी आत्मा तक चीत्कार उठी एक पल को जैसे सब थम गया।हाथ में पकड़ी कटोरी नीचे गिर गई। दाल ज़मीन पर फैल गई लेकिन तन्वी की नज़रें कहीं और जमी थीं। रूचि की वो बात बार बार उसके मन में रह रह के गूँज रही थी वो बाहर आई। रुचि जा चुकी थी। लेकिन अब तन्वी को किसी सबूत की ज़रूरत नहीं थी। उसकी बहन ने उसकी शादी, उसका भरोसा और उसकी दुनिया सबकुछ तोड़ दिया था। और सबसे ज़्यादा दर्द उसे उस बात का हुआ, जो आगे घटने वाला था।शाम को उसने माँ और पापा को सामने बिठाया। उसकी आवाज़ सधी हुई थी, लेकिन भीतर ज्वालामुखी फूट रहा था।“माँ… आप समझ रही हैं? मेरी छोटी... पर तन्वी ने वाक्य बीच में ही रोक दिया और कहा आपकी छोटी बेटी मेरे पति को चाहती है और आप लोग कुछ नहीं बोल रहे हैं चुप है माँ की आँखें नीचे झुक गईं, जैसे किसी ने अपराध रंगे हाथों पकड़ लिया हो। पापा के चेहरे पर शर्म का साया था, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा। कोई शब्द नहीं। कोई सवाल नहीं। कोई आंसू तक नहीं।बस एक भारी चुप्पी,वही चुप्पी तन्वी को सबसे ज़्यादा चुभी। क्योंकि किसी अजनबी के धोखे से ज़्यादा तकलीफ़ अपनों की चुप्पी देती है। और जब माँ भी कुछ ना बोले, तो लड़की सच में अकेली हो जाती है।उस दिन तन्वी ने सबकुछ छोड़ दिया मायके का रिश्ता, बचपन की यादें, हर त्यौहार की खुशबू।उसने अपने दिल का दरवाज़ा हमेशा के लिए बंद कर लिया था। अब तीन साल बाद... रक्षाबंधन के दो दिन पहले तन्वी अपने कमरे में बैठी ऑफिस का काम कर रही थी। तभी उसके मोबाइल पर एक व्हाट्सऐप नोटिफिकेशन आया अनजान नंबर था।संदेश था: “राखी भेजी है… पता नहीं तू बाँधेगी या नहीं।पर एक और कोशिश थी ये मेरी शायद आखिरी।”— रुचि साथ में एक राखी की फोटो थी।सफेद धागा, बीच में नीला कमल।साधारण, लेकिन उसकी आँखों में चुभता हुआ।तन्वी ने फोन रखा। कुछ नहीं कहा। ना जवाब दिया, ना किसी से जिक्र किया।उस रात वो जल्दी सो गई… लेकिन नींद नहीं आई।अगली सुबह तन्वी मंदिर गई,सामने दीपक जल रहा था, हवा में अगरबत्ती की खुशबू थी,उसने आँखें बंद कीं,कुछ माँगना चाहा… पर शब्द नहीं मिले।अंदर कोई सवाल था, जिसका जवाब वो खुद से छिपा रही थी। क्या रुचि को माफ़ करना चाहिए? क्या रिश्तों की डोर इतनी कमजोर होती है कि एक गलती उसे तोड़ दे? तन्वी अपना सारा काम ख़त्म करके शाम को जब घर लौटी तो उसने देखा की टीवी चल रहा है और उसकी सात साल की बेटी अरीता राखी पर कोई ऐड देख रही थी “मम्मा, मेरी फ्रेंड ने अपने भाई के लिए राखी खरीदी है… मेरा भाई कब आएगा?” वो सवाल था या तीर तन्वी को खुद समझ नहीं आया। अरीता की मासूम आवाज़ ने उसके भीतर छिपे रिश्ते को आवाज़ दी। उस रात में अद्वैत से बात करती है तन्वी “मैं कल मायके जा रही हूँ,” उसने कहा।अद्वैत ने चौंककर देखा। “इतने साल बाद?” “हाँ,” उसने शांत स्वर में कहा, “शायद कुछ धागे अब भी बंधे हैं। बस उलझे हुए हैं।” अद्वैत ने गहरी साँस ली। “जाना ज़रूरी है तो ज़रूर जाओ… ।” अगली सुबह का वो लम्हा कोई आम सुबह नहीं थी।घड़ी ने जैसे ही दस बजाए, तन्वी अपने मायके की उस जानी-पहचानी दहलीज़ पर खड़ी थी वही घर जहाँ उसके बचपन की हँसी बसी थी, जहाँ कभी माँ के हाथों की रसोई की खुशबू और पापा की हँसी के ठहाके गूंजते थे। लेकिन आज, उसके भीतर एक तूफ़ान था… और बाहर एक सन्नाटा।दरवाज़ा धीरे से खुला।माँ ने झांककर देखा… और अगले ही पल उनका चेहरा जैसे जम सा गया।"तू…?" उनके मुँह से कुछ और निकल ही नहीं पाया। उनकी आँखों में एक अजीब सा डर, एक पछतावा, और थोड़ी सी हैरानी भी थी तन्वी को यहां इतने सालों बाद देख कर। तन्वी ने माँ से न कुछ कहा न ही अंदर आने की इजाज़त ली और चुपचाप अंदर चली गई। कमरे के कोने में रुचि खड़ी थी चुप, सहमी हुई, जैसे कोई बच्ची हो जो गलती के बाद माँ की सज़ा का इंतज़ार करती है। उसके चेहरे पर ग्लानि साफ़ दिख रही थी। आँखें झुकी हुईं, हाथ काँप रहे थे।तन्वी उसके पास पहुँची। रुचि ने एक बार उसकी तरफ देखा… और फिर नज़रें नीची कर लीं।तन्वी ने बिना कुछ कहे उसका हाथ थामा।धीरे से उसकी कलाई उठाई। राखी की थाली निकाली… और वही राखी, जो वो हर साल बड़े प्यार से लाया करती थी, आज चुपचाप बाँध दी। रुचि की आँखों से आँसू फूट पड़े। वो काँपती आवाज़ में बोली "दीदी… माफ़ कर दो। तुमने मुझे सबसे ज़्यादा प्यार दिया और इतना विश्वास किया पर मैंने आपका विश्वास तोड़ दिया।"उसकी आवाज़ में जो सच्चा पछतावा था,उसने तन्वी के दिल को छू लिया। जब तन्वी वापस लौट रही थी, ट्रेन की खिड़की से बाहर बारिश हो रही थी।बूंदें कांच से टकरा रही थीं जैसे कोई पुराना एहसास फिर से दरवाज़ा खटखटा रहा हो।उसने जेब से राखी निकाली।नीला कमल अब भी उसमें था।उसने मन ही मन कहा:“ये राखी उस रिश्ते की है जो ना भाई का था, ना बहन का ये उस रिश्ते की है जिसमें माफ़ी, पश्चाताप, और प्रेम तीनों एक साथ बंधते हैं।” राखी सिर्फ कलाई पर नहीं,दिल पर भी बाँधी जाती है।