HAPPY INDEPENDENCE DAY

भोर बस हुई ही थी सूरज की सुनहरी किरणें पेड़ों को स्पर्श कर रही थी। खेतो पे धुंध की चादर बिखरी पड़ी थी। गीली मिटटी की खुशबू हवा में बिखरी हुई थी… जो बस गाँव में ही आती है। बीच में-बीच में कहीं से लकड़ी के चूल्हों का धुआँ, जैसे किसी ने सर्दी में ओढ़नी ओढ़ाई हो।
हम सबका सबसे पुराना साथी गाँव के बीचो बीच ना जाने कितने सालों से खड़ा वो बरगद का पेड़ ही था। जिसकी स्तम्भ जैसे तने, शाखाएं ऐसी फैली हुई जैसे किसी ने अपनी बाहे फैला राखी हो। जेड इतनी मजबूती से धरती को पकडे हुई जैसे कोई बुजुर्ग सरे गाँव को थामे हुए हो। उसकी छाँव में आज आरव खड़ा था नंगे पाँव, ठंडी मिट्टी में धँसा हुआ, हाथ में लंबा-सा डंडा लिए हुए जिसे वो बैलेंस करने की कोशिश कर रहा था एक ऊँगली पे,हाँ हाँ आप सबने भी बचपन में वो खेल खेला होगा जिसमे डंडे को हाथ की हथेली पे बैलेंस करना होता है। वहीँ पास में चारपाई पे अम्मा बैठी हुई थी अपने हाथ में तिरंगा पकडे जिसे सुई-धागा लेकर वो धीरे-धीरे टाँके लगा रही थीं, जैसे पूजा की थाली सजा रही हों।
अब देखो, बाजार में तो झंडे ढेर के ढेर बिकते हैं, लेकिन अम्मा? नहीं भाई, वो हर साल खुद ही सिलती हैं। पूछो क्यों, तो कहती हैं, “ये झंडा हम ख़रीदते नहीं, इसे हम बनाते हैं।” उनके लिए हर टाँका एक याद है तबकि जब अम्मा खुद छोटी थीं, उनके बाबूजी रघुनाथ सिंह चौहान इसी बरगद के नीचे बैठकर आज़ादी की बातें किया करते थे। दिन में खेत में हल चलाते, रात को गाँव वालों को यहाँ इकट्ठा करके कहते, “एक दिन अपना तिरंगा यहीं फहरेगा।” अम्मा ने खुद देखा था, एक रात उन्होंने अपनी बीवी का सिला छोटा-सा झंडा निकाला, पेड़ पर बाँध दिया और बोले, देखना जिस दिन हमारा भारत आज़ाद होगा उस दिन इससे भी बड़ा तिरंगा लहराया जाएगा। अगर ऊपर वाले ने सांसें दी तो हम सब साथ में देखेंगे आज़ाद देश को ,आज़ाद देश में सीना चौड़ा करके हम सब अपनी जान अपना मान और अपनी शान भारतवर्ष के इस झंडे को लहराते हुए”
बस, वो आखिरी रात थी। हफ़्ते भर बाद वो किसी ज़रूरी काम के लिए जा रहे हैं ऐसा बोलके गए और फिर कभी लौटकर नहीं आए। बस उनकी खबर आई की अंग्रेज़ो से लोहा लेते वक़्त किसी स्वतंत्रता सेनानी को बचाते हुए अपने प्राण न्योछावर कर दिए उन्होंने, और पूरे गाँव ने इसी बरगद के नीचे खड़े होकर इस खहबर को सुना जो दिल तोड़ देने वाली थी जिसे सुनके इतना सन्नाटा छा गया था कि पत्ते भी हिलना भूल गए थे।
फिर सालों बीत गये और आया 15 अगस्त 1947। अम्मा ने काँपते हाथों से बरगद पर पहला आज़ाद भारत का झंडा चढ़ाया। और तब से ये पेड़… बस पेड़ नहीं रहा, ये उस वादे का गवाह बन गया जो श्री रघुनाथ सिंह चौहान और उन्ही के जैसे सैकड़ों लोगों ने खुद से और देशवासियों से किया था ।
आज फिर वही दिन था। औरतें गेंदा के फूल लेकर आ रही थीं, बच्चे इधर-उधर भाग रहे थे, उनके बालों में तिरंगे की फीतियाँ झूल रही थीं, ढोल की थाप पूरे गाँव में गूँज रही थी। गरम-गरम जलेबियों की खुशबू हवा में तैर रही थी।
आरव ने अम्मा से पूछा, “अम्मा, हमेशा यहाँ ही क्यों लगाते हैं?” अम्मा ने पेड़ को ऊपर तक देखा और बोलीं, “क्योंकि बेटा, इस पेड़ ने मेरे बाबू जी की वो आखिरी कसम सुनी है हम बस उस परंपरा को निभा रहे हैं।”
आरव चुप हो गया, बस डंडा जड़ों के पास गाड़ दिया। अम्मा ने रस्सी खींची, झंडा ऊपर चढ़ा, हवा में खुला केसरिया, सफेद, हरा… और बीच में चक्र घूम रहा था। उस दर्श्य को देख कर सारा गाँव आत्मविभोर हो गया हर तरफ से जन गैन मन की आवाज़ गूंज उठी। आरव ने पूरे मन और अपना पूरा जोश लगा कर गया। उसकी नज़रें बस तिरंगे को देख रही थी, और दिल में कुछ नया सा जोश कुलांचें मार रहा था ।
गाना ख़त्म हुआ, अम्मा ने उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा, “अब ये तेरी ज़िम्मेदारी है।” ढोल की थाप तेज़ हुई, बच्चे धूल में नंगे पाँव नाचने लगे, जलेबियाँ वितरत की जाने लगी। उस वक़्त बरगद की शाखाएं हवा में ज़ोर ज़ोर से हल्के उस तिरंगे को मानो सलामी दे रही हो और बोल रही हो की स्वतंत्रता दिवस की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं
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