JALTE ZAKHM

JALTE ZAKHM
गाँव की गलियों में उस शाम एक अजीब-सी चुप्पी थी, जैसे हवा भी किसी बोझ से दब गई हो। सूरज आधा डूब चुका था, आसमान में हल्की-हल्की लालिमा थी, लेकिन वो खूबसूरत नहीं लग रही थी वो किसी जलते ज़ख्म जैसी थी। चौपाल पर लोग सिर झुकाए बैठे थे। कोई बोल नहीं रहा था, सिर्फ़ एक-दो औरतों के सिसकने की आवाज़ें थीं। बीच में वही खबर घूम रही थी “अमर सिंह… और उनके चार साथी… गोली से मार दिए गए।” किसी ने हिम्मत करके कहा, “चौक में छोड़ गए… जैसे कूड़ा फेंकते हैं।” गोपाल उस वक्त कुएँ से पानी भरकर आ रहा था। चौदह साल का दुबला-पतला लड़का, गेहुआँ रंग, आँखों में बचपन के मासूम सपनों की चमक,बाल हमेशा बिखरे-बिखरे , जैसे कभी कंघी देखी ही न हो, और पैरों में घिसे हुए चप्पल जो बरसों पुराने लगते थे। गाँव के लोग कहते थे, ये लड़का न, बड़ा होकर ज़रूर कोई बड़ा काम करेगा। वो बचपन से ही अपने हीरो अमर सिंह और उनके साथियों की कहानियों में जीता था। बाँस का डंडा तलवार बना लेता, सिर पर पगड़ी बाँधकर खेतों में “भारत माता की जय” चिल्लाता, और खुद को भी एक दिन आज़ादी के लिए लड़ता हुआ देखता। लेकिन उस दिन, चौपाल की खबर सुनते ही उसके हाथ से पानी की बाल्टी गिर गई, पानी मिट्टी में मिलकर बह गया और उसके पैर अपने आप दौड़ पड़े। उसकी सासें उखड रही थी पर वो फिर भी भागता रहा और जैसे ही गांव के चौक पर आके उसके पाँव थामे तो वो मंज़र देख के उसकी मनो जान ही निकल गई मिटटी खून से लाल हुई पड़ी थी इतनी लाल की उसके आगे शाम का वो ढलता सूरज भी फीका लग रहा था धुल में खून था या धुल खून से भरी थी पता नहीं चल रहा था और उसके हीरो उसी धुल में पड़े हुए थे निढाल। अमर सिंह का चेहरा मनो अभी भी कुछ कहना छह रहा था आँखें खुली हुई थी होठों पर भी खून लगा था और पेशानी पे लकीरें थी गहरी … जैसे अभी भी लड़ाई लड़ रहे हों। उनके हाथ अब भी मुठ्ठी में बंद थे, जैसे किसी का गला पकड़ रखा हो। गोपाल बेसुध सा वहीँ ज़मीन में धस सा गया। उसकी सासें ऐसी हो गयी जैसे किसी ने उसका गाला दबा रखा हो आँखों में जैसे आग लगी हो। उसका हीरो उसके सामने लाश के रूप में पड़ा था गोपाल की आँखें अमर सिंह की आँखों पे थम सी गयी थी जिसमे उसने बचपन से आज़ादी का सपना देखा था। और तभी, उस चौदह साल के लड़के के अंदर कुछ बदल गया। वो मासूमियत, वो खेल-कूद, वो पतंग उड़ाने वाला गोपाल वहीं उसी मिट्टी में दफन हो गया, और उसकी जगह खड़ा हो गया एक ऐसा इंसान, जिसकी रगों में अब सिर्फ़ एक चीज़ दौड़ रही थी बदला।उसने खुद से कहा “ये ऐसे नहीं जाएगा। इसका हिसाब होगा।” उस रात गोपाल घर नहीं गया। खेतों के किनारे-किनारे घूमता रहा, अपने मन में नक्शे बनाता रहा। अगले कई दिनों तक उसने अंग्रेज़ों के आने-जाने के रास्ते देखे, उनके ठिकानों की आदतें सीखी। और फिर एक दिन उसने देख लिया कैप्टन ब्राउन, वही जिसने गोली चलाने का हुक्म दिया था, हर गुरुवार को शाम को नदी किनारे घोड़े पर घूमने आता है। बस दो सिपाही साथ, बाकी कोई नहीं। और गुरुवार का दिन आ गया। आसमान में काले बादल थे, हवा भारी थी, और दूर से बिजली के गरजने की आवाज़ आ रही थी। गोपाल ने अपने चाचा का पुराना तमंचा निकाला, लकड़ी का हैंडल घिसा हुआ था, लेकिन लोहे का मुँह अब भी खतरनाक। उसने उसे अपने कुर्ते के नीचे छुपाया और नदी किनारे झाड़ियों में बैठ गया। तभी गोपाल को घोड़ों की टाप सुनाई दी जिसे सुनते ही गोपाल की धड़कने तेज़ हो गई थी उसे लगा मनो उसे कोई सुन लेगा काफी देर की बेचैनी के बाद उसे वो दिखा जिसका इंतज़ार वो पिछले कई दिनों से कर रहा था, हर पल अपने आप से कह रहा था सोचा है तो करूँगा ही…और अचानक उसकी नज़र पड़ती है सामने से आते हुए उस शख्स पे जो देखने में ऊँचा, सफेद चमड़ी वाला, सिगार के धुएँ को हवा में उड़ाता हुआ बेफिक्री से चला जा रहा था, जबड़े भींच जाते हैं गोपाल के क्यूंकि यही तो था ब्राउन, जिसके चेहरे पर वो घमंड था जो सिर्फ़ दूसरों की मौत पर पनपता है। गोपाल ने अपने हीरो का नाम बहुत धीरे से कहा “अमर सिंह…” और तमंचा उठाया। बारिश की पहली बूँद उसके माथे पर गिरी, और ट्रिगर दब गया। गोली की आवाज़ गूँजी और ब्राउन का शरीर पीछे की तरफ़ झटका खाकर घोड़े से गिरा। मिट्टी में गिरते ही उसके हाथ छटपटाने लगे, सिगार दूर जा गिरा, और कुछ सेकंड बाद सब ख़त्म हो गया। देखते ही देखते बारिश की बूंदों ने गति पकड़ ली और सारा खून पानी अपने साथ बहा ले गया गोपाल वहीँ पर खड़े खड़े बस ज़मीन में बहते उस पानी और खून को देख रहा था उसकी आँखों से खुछ बह रहा था अब वो बारिश का पानी था उसके आंसू ये खुद भी नहीं जानता था । वो बिना पीछे देखे जंगल की तरफ़ चला गया। कहते हैं, बाद में वो क्रांतिकारियों के एक दस्ता में शामिल हो गया, और अंग्रेज़ों की नजर में वो सबसे ख़तरनाक नामों में गिना जाने लगा। गाँव में, बरसों बाद भी, जब बच्चे अमर सिंह का नाम लेकर खेलते, तो कोई बुज़ुर्ग धीमे से जोड़ देता “और गोपाल… जिसने अपने हीरो का बदला लिया।”